श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय १८ : मोक्षसंन्यासयोग

Shrimad Bhagavad Gita - Adhyay 18- Sanskrit, Hindi, Marathi | अर्जुन उवाच, संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्‌ । त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ॥ १८-१ ॥

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श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय १८ : मोक्षसंन्यासयोग

भारतीय संस्कृति में गीता का स्थान इतना महत्वपूर्ण है कि गीता को 'योगोपनिषद' या 'गीतोपनिषद' कहा जाता है और इसे उपनिषद का दर्जा दिया गया है। आज हम श्रीमद्भगवद्गीता को हिन्दी और मराठी में जानने कि कोशिश करे|

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अथाष्टादशोऽध्याय: मोक्षसंन्यासयोग

अर्जुन उवाच
संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्‌ ।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ॥ १८-१ ॥

Hindi - अर्जुन बोले- हे महाबाहो! हे अन्तर्यामिन्‌! हे वासुदेव! मैं संन्यास और त्याग के तत्व को पृथक्‌-पृथक्‌ जानना चाहता हूँ ৷৷18.1॥
Marathi - अर्जुन म्हणाला, हे महाबाहो, हे हृषीकेशा, हे केशिनिषूदना, मी संन्यास आणि त्याग यांचे तत्त्व वेगवेगळे जाणू इच्छितो. ॥ १८-१ ॥


श्रीभगवानुवाच
काम्यानां कर्माणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः ।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ॥ १८-२ ॥

Hindi - श्री भगवान बोले- कितने ही पण्डितजन तो काम्य कर्मों के (स्त्री, पुत्र और धन आदि प्रिय वस्तुओं की प्राप्ति के लिए तथा रोग-संकटादि की निवृत्ति के लिए जो यज्ञ, दान, तप और उपासना आदि कर्म किए जाते हैं, उनका नाम काम्यकर्म है।) त्याग को संन्यास समझते हैं तथा दूसरे विचारकुशल पुरुष सब कर्मों के फल के त्याग को (ईश्वर की भक्ति, देवताओं का पूजन, माता-पितादि गुरुजनों की सेवा, यज्ञ, दान और तप तथा वर्णाश्रम के अनुसार आजीविका द्वारा गृहस्थ का निर्वाह एवं शरीर संबंधी खान-पान इत्यादि जितने कर्तव्यकर्म हैं, उन सबमें इस लोक और परलोक की सम्पूर्ण कामनाओं के त्याग का नाम सब कर्मों के फल का त्याग है) त्याग कहते हैं ৷৷18.2॥
Marathi - भगवान श्रीकृष्ण म्हणाले, कित्येक पंडित काम्य कर्मांच्या त्यागाला संन्यास मानतात. तर दुसरे काही विचारकुशल लोक सर्व कर्मांच्या फळाच्या त्यागाला त्याग म्हणतात. ॥ १८-२ ॥


त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः ।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे ॥ १८-३ ॥

Hindi - कई एक विद्वान ऐसा कहते हैं कि कर्ममात्र दोषयुक्त हैं, इसलिए त्यागने के योग्य हैं और दूसरे विद्वान यह कहते हैं कि यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्यागने योग्य नहीं हैं ৷৷18.3॥
Marathi - कित्येक विद्वान असे म्हणतात की, सर्व कर्मे दोषयुक्त आहेत म्हणून ती टाकणे योग्य होय आणि दुसरे विद्वान असे म्हणतात की, यज्ञ, दान आणि तप रूप कर्मे टाकणे योग्य नाही. ॥ १८-३ ॥


निश्चयं शृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम ।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः ॥ १८-४ ॥

Hindi - हे पुरुषश्रेष्ठ अर्जुन ! संन्यास और त्याग, इन दोनों में से पहले त्याग के विषय में तू मेरा निश्चय सुन। क्योंकि त्याग सात्विक, राजस और तामस भेद से तीन प्रकार का कहा गया है ৷৷18.4॥
Marathi - हे पुरुषश्रेष्ठ अर्जुना, संन्यास आणि त्याग या दोहोंपैकी प्रथम त्यागाच्या बाबतीत माझा निर्णय ऐक. कारण त्याग सात्त्विक, राजस व तामस या भेदांमुळे तीन प्रकारचा सांगितला गेला आहे. ॥ १८-४ ॥


यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्‌ ।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्‌ ॥ १८-५ ॥

Hindi - यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याग करने के योग्य नहीं है, बल्कि वह तो अवश्य कर्तव्य है, क्योंकि यज्ञ, दान और तप -ये तीनों ही कर्म बुद्धिमान पुरुषों को (वह मनुष्य बुद्धिमान है, जो फल और आसक्ति को त्याग कर केवल भगवदर्थ कर्म करता है।) पवित्र करने वाले हैं ৷৷18.5॥
Marathi - यज्ञ, दान आणि तप रूप कर्म टाकणे योग्य नाही. उलट ते अवश्य केले पाहिजे. कारण यज्ञ, दान व तप ही तीनही कर्मे बुद्धिमान माणसांना पवित्र करणारी आहेत. ॥ १८-५ ॥


एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च ।
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम्‌ ॥ १८-६ ॥

Hindi - इसलिए हे पार्थ! इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को तथा और भी सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को आसक्ति और फलों का त्याग करके अवश्य करना चाहिए, यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है ৷৷18.6॥
Marathi - म्हणून हे पार्था (अर्थात पृथापुत्र अर्जुना), ही यज्ञ, दान व तप रूप कर्मे तसेच इतरही सर्व कर्तव्य कर्मे आसक्ती आणि फळांचा त्याग करून अवश्य केली पाहिजेत. हे माझे निश्चित असे उत्तम मत आहे. ॥ १८-६ ॥


नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते ।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः ॥ १८-७ ॥

Hindi - (निषिद्ध और काम्य कर्मों का तो स्वरूप से त्याग करना उचित ही है) परन्तु नियत कर्म का (इसी अध्याय के श्लोक 48 की टिप्पणी में इसका अर्थ देखना चाहिए।) स्वरूप से त्याग करना उचित नहीं है। इसलिए मोह के कारण उसका त्याग कर देना तामस त्याग कहा गया है ৷৷18.7॥
Marathi - (निषिद्ध आणि काम्य कर्मांचा तर स्वरूपतः त्याग करणे योग्यच आहे.) परंतु नियत कर्मांचा स्वरूपतः त्याग योग्य नाही. म्हणून मोहाने त्याचा त्याग करणे याला तामस त्याग म्हटले आहे. ॥ १८-७ ॥


दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत्‌ ।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत्‌ ॥ १८-८ ॥

Hindi - जो कुछ कर्म है वह सब दुःखरूप ही है- ऐसा समझकर यदि कोई शारीरिक क्लेश के भय से कर्तव्य-कर्मों का त्याग कर दे, तो वह ऐसा राजस त्याग करके त्याग के फल को किसी प्रकार भी नहीं पाता ৷৷18.8॥
Marathi - जे काही कर्म आहे, ते दुःखरूपच आहे, असे समजून जर कोणी शारीरिक त्रासाच्या भीतीने कर्तव्य कर्मे सोडून देईल, तर त्याला असा राजस त्याग करून त्यागाचे फळ कोणत्याही प्रकारे मिळत नाही. ॥ १८-८ ॥


कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन ।
सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः ॥ १८-९ ॥

Hindi - हे अर्जुन! जो शास्त्रविहित कर्म करना कर्तव्य है- इसी भाव से आसक्ति और फल का त्याग करके किया जाता है- वही सात्त्विक त्याग माना गया है ৷৷18.9॥
Marathi - हे अर्जुना, जे शास्त्रविहित कर्म करणे कर्तव्य आहे, या भावनेने आसक्ती आणि फळ यांचा त्याग करून केले जाते, तोच सात्त्विक त्याग मानला गेला आहे. ॥ १८-९ ॥


न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते ।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः ॥ १८-१० ॥

Hindi - जो मनुष्य अकुशल कर्म से तो द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता- वह शुद्ध सत्त्वगुण से युक्त पुरुष संशयरहित, बुद्धिमान और सच्चा त्यागी है ৷৷18.10॥
Marathi - जो मनुष्य कुशल नसलेल्या कर्मांचा द्वेष करीत नाही आणि कुशल कर्मांत आसक्त होत नाही, तो शुद्ध सत्त्वगुणी पुरुष संशयरहित ज्ञानी व खरा त्यागी होय. ॥ १८-१० ॥


न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः ।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ॥ १८-११ ॥

Hindi - क्योंकि शरीरधारी किसी भी मनुष्य द्वारा सम्पूर्णता से सब कर्मों का त्याग किया जाना शक्य नहीं है, इसलिए जो कर्मफल त्यागी है, वही त्यागी है- यह कहा जाता है ৷৷18.11॥
Marathi - कारण शरीरधारी कोणत्याही माणसाकडून पूर्णपणे सर्व कर्मांचा त्याग केला जाणे शक्य नाही. म्हणून जो कर्मफळाचा त्यागी आहे, तोच त्यागी आहे, असे म्हटले जाते. ॥ १८-११ ॥


अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्‌ ।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित्‌ ॥ १८-१२ ॥

Hindi - कर्मफल का त्याग न करने वाले मनुष्यों के कर्मों का तो अच्छा, बुरा और मिला हुआ- ऐसे तीन प्रकार का फल मरने के पश्चात अवश्य होता है, किन्तु कर्मफल का त्याग कर देने वाले मनुष्यों के कर्मों का फल किसी काल में भी नहीं होता ৷৷18.12॥
Marathi - कर्मफळाचा त्याग न करणाऱ्या मनुष्यांना कर्माचे बरे, वाईट व मिश्र असे तीन प्रकारचे फळ मेल्यानंतर जरूर मिळते; परंतु कर्मफळाचा त्याग करणाऱ्या मनुष्यांना कर्माचे फळ कधीही मिळत नाही. ॥ १८-१२ ॥


पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे ।
साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्‌ ॥ १८-१३ ॥

Hindi - हे महाबाहो! सम्पूर्ण कर्मों की सिद्धि के ये पाँच हेतु कर्मों का अंत करने के लिए उपाय बतलाने वाले सांख्य-शास्त्र में कहे गए हैं, उनको तू मुझसे भलीभाँति जान ৷৷18.13॥
Marathi - हे महाबाहो अर्जुना, सर्व कर्मांच्या सिद्धींची ही पाच कारणे, कर्मांचा शेवट करण्याचा उपाय सांगणाऱ्या सांख्यशास्त्रात सांगितली गेली आहेत, ती तू माझ्याकडून नीट समजून घे. ॥ १८-१३ ॥


अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्‌ ।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्‌ ॥ १८-१४ ॥

Hindi - इस विषय में अर्थात कर्मों की सिद्धि में अधिष्ठान (जिसके आश्रय कर्म किए जाएँ, उसका नाम अधिष्ठान है) और कर्ता तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के करण (जिन-जिन इंद्रियादिकों और साधनों द्वारा कर्म किए जाते हैं, उनका नाम करण है) एवं नाना प्रकार की अलग-अलग चेष्टाएँ और वैसे ही पाँचवाँ हेतु दैव (पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मों के संस्कारों का नाम दैव है) है ৷৷18.14॥
Marathi - कर्म पूर्ण होण्यासाठी अधिष्ठान, कर्ता, निरनिराळ्या प्रकारची करणे, अनेक प्रकारच्या वेगवेगळ्या क्रिया आणि तसेच पाचवे कारण दैव आहे. ॥ १८-१४ ॥


शरीरवाङ्‍मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः ।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः ॥ १८-१५ ॥

Hindi - मनुष्य मन, वाणी और शरीर से शास्त्रानुकूल अथवा विपरीत जो कुछ भी कर्म करता है- उसके ये पाँचों कारण हैं ৷৷18.15॥
Marathi - मनुष्य मन, वाणी आणि शरीर यांनी शास्त्राला अनुसरून किंवा त्याविरुद्ध कोणतेही कर्म करतो, त्याची ही पाचही कारणे असतात. ॥ १८-१५ ॥


तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः ।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः ॥ १८-१६ ॥

Hindi - परन्तु ऐसा होने पर भी जो मनुष्य अशुद्ध बुद्धि (सत्संग और शास्त्र के अभ्यास से तथा भगवदर्थ कर्म और उपासना के करने से मनुष्य की बुद्धि शुद्ध होती है, इसलिए जो उपर्युक्त साधनों से रहित है, उसकी बुद्धि अशुद्ध है, ऐसा समझना चाहिए।) होने के कारण उस विषय में यानी कर्मों के होने में केवल शुद्ध स्वरूप आत्मा को कर्ता समझता है, वह मलीन बुद्धि वाला अज्ञानी यथार्थ नहीं समझता ৷৷18.16॥
Marathi - परंतु असे असूनही जो मनुष्य अशुद्ध बुद्धीमुळे कर्मे पूर्ण होण्यामध्ये केवळ आणि शुद्धस्वरूप आत्म्याला कर्ता समजतो, तो मलिन बुद्धीचा अज्ञानी खरे काय ते जाणत नाही. ॥ १८-१६ ॥


यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥ १८-१७ ॥

Hindi - जिस पुरुष के अन्तःकरण में 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में और कर्मों में लिपायमान नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मरता है और न पाप से बँधता है। (जैसे अग्नि, वायु और जल द्वारा प्रारब्धवश किसी प्राणी की हिंसा होती देखने में आए तो भी वह वास्तव में हिंसा नहीं है, वैसे ही जिस पुरुष का देह में अभिमान नहीं है और स्वार्थरहित केवल संसार के हित के लिए ही जिसकी सम्पूर्ण क्रियाएँ होती हैं, उस पुरुष के शरीर और इन्द्रियों द्वारा यदि किसी प्राणी की हिंसा होती हुई लोकदृष्टि में देखी जाए, तो भी वह वास्तव में हिंसा नहीं है क्योंकि आसक्ति, स्वार्थ और अहंकार के न होने से किसी प्राणी की हिंसा हो ही नहीं सकती तथा बिना कर्तृत्वाभिमान के किया हुआ कर्म वास्तव में अकर्म ही है, इसलिए वह पुरुष 'पाप से नहीं बँधता'।) ৷৷18.17॥
Marathi - ज्या माणसाच्या अंतःकरणात मी कर्ता आहे, असा भाव नसतो, तसेच ज्याची बुद्धी सांसारिक पदार्थांत आणि कर्मांत लिप्त होत नाही, तो माणूस या सर्व लोकांना मारूनही वास्तविक तो मारत नाही आणि त्याला पापही लागत नाही. ॥ १८-१७ ॥


ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना ।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः ॥ १८-१८ ॥

Hindi - ज्ञाता (जानने वाले का नाम 'ज्ञाता' है।), ज्ञान (जिसके द्वारा जाना जाए, उसका नाम 'ज्ञान' है। ) और ज्ञेय (जानने में आने वाली वस्तु का नाम 'ज्ञेय' है।)- ये तीनों प्रकार की कर्म-प्रेरणा हैं और कर्ता (कर्म करने वाले का नाम 'कर्ता' है।), करण (जिन साधनों से कर्म किया जाए, उनका नाम 'करण' है।) तथा क्रिया (करने का नाम 'क्रिया' है।)- ये तीनों प्रकार का कर्म-संग्रह है ৷৷18.18॥
Marathi - ज्ञाता, ज्ञान आणि ज्ञेय या तीन प्रकारच्या कर्माच्या प्रेरणा आहेत. आणि कर्ता, करण तसेच क्रिया हे तीन प्रकारचे कर्मसंग्रह आहेत. ॥ १८-१८ ॥


ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः ।
प्रोच्यते गुणसङ्ख्याने यथावच्छृणु तान्यपि ॥ १८-१९ ॥

Hindi - गुणों की संख्या करने वाले शास्त्र में ज्ञान और कर्म तथा कर्ता गुणों के भेद से तीन-तीन प्रकार के ही कहे गए हैं, उनको भी तु मुझसे भलीभाँति सुन ৷৷18.19॥
Marathi - गुणांची संख्या सांगणाऱ्या शास्त्रात ज्ञान, कर्म आणि कर्ता हे गुणांच्या भेदाने तीन-तीन प्रकारचेच सांगितले आहेत. तेही तू माझ्याकडून नीट ऐक. ॥ १८-१९ ॥


सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते ।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्‌ ॥ १८-२० ॥

Hindi - जिस ज्ञान से मनुष्य पृथक-पृथक सब भूतों में एक अविनाशी परमात्मभाव को विभागरहित समभाव से स्थित देखता है, उस ज्ञान को तू सात्त्विक जान ৷৷18.20॥
Marathi - ज्या ज्ञानामुळे माणूस निरनिराळ्या सर्व भूतांमध्ये एक अविनाशी परमात्मभाव विभागरहित समभावाने भरून राहिला आहे, असे पाहतो, ते ज्ञान तू सात्त्विक आहे, असे जाण. ॥ १८-२० ॥


पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान्‌ ।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्‌ ॥ १८-२१ ॥

Hindi - किन्तु जो ज्ञान अर्थात जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य सम्पूर्ण भूतों में भिन्न-भिन्न प्रकार के नाना भावों को अलग-अलग जानता है, उस ज्ञान को तू राजस जान ৷৷18.21॥
Marathi - परंतु ज्या ज्ञानाने मनुष्य सर्व भूतांमध्ये भिन्न भिन्न प्रकारांचे अनेक भाव वेगवेगळे जाणतो, ते ज्ञान तू राजस जाण. ॥ १८-२१ ॥


यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्‌ ।
अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम्‌ ॥ १८-२२ ॥

Hindi - परन्तु जो ज्ञान एक कार्यरूप शरीर में ही सम्पूर्ण के सदृश आसक्त है तथा जो बिना युक्तिवाला, तात्त्विक अर्थ से रहित और तुच्छ है- वह तामस कहा गया है ৷৷18.22॥
Marathi - परंतु जे ज्ञान एका कार्यरूपी शरीरातच पूर्णासारखे आसक्त असते, तसेच जे युक्तिशून्य, तात्त्विक Marathi - ाने रहित आणि तुच्छ असते, ते तामस म्हटले गेले आहे. ॥ १८-२२ ॥


नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम्‌ ।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते ॥ १८-२३ ॥

Hindi - जो कर्म शास्त्रविधि से नियत किया हुआ और कर्तापन के अभिमान से रहित हो तथा फल न चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग-द्वेष के किया गया हो- वह सात्त्विक कहा जाता है ৷৷18.23॥
Marathi - जे कर्म शास्त्रविधीने नेमून दिलेले असून कर्तेपणाचा अभिमान न बाळगता फळाची इच्छा न करणाऱ्या माणसाने राग व द्वेष सोडून केलेले असते, ते सात्त्विक म्हटले जाते. ॥ १८-२३ ॥


यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्कारेण वा पुनः ।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्‌ ॥ १८-२४ ॥

Hindi - परन्तु जो कर्म बहुत परिश्रम से युक्त होता है तथा भोगों को चाहने वाले पुरुष द्वारा या अहंकारयुक्त पुरुष द्वारा किया जाता है, वह कर्म राजस कहा गया है ৷৷18.24॥
Marathi - परंतु जे कर्म अतिशय परिश्रमपूर्वक तसेच भोगांची इच्छा करणाऱ्या किंवा अहंकार बाळगणाऱ्या माणसाकडून केले जाते, ते राजस म्हटले गेले आहे. ॥ १८-२४ ॥


अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम्‌ ।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते ॥ १८-२५ ॥

Hindi - जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य को न विचारकर केवल अज्ञान से आरंभ किया जाता है, वह तामस कहा जाता है ৷৷18.25॥
Marathi - जे कर्म परिणाम, हानी, हिंसा आणि सामर्थ्य यांचा विचार न करता केवळ अज्ञानाने केले जाते, ते तामस होते. ॥ १८-२५ ॥


मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः ।
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥ १८-२६ ॥

Hindi - जो कर्ता संगरहित, अहंकार के वचन न बोलने वाला, धैर्य और उत्साह से युक्त तथा कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष -शोकादि विकारों से रहित है- वह सात्त्विक कहा जाता है ৷৷18.26॥
Marathi - जो कर्ता आसक्ती न बाळगणारा, मी, माझे न म्हणणारा, धैर्य व उत्साहाने युक्त, कार्य सिद्ध होवो वा न होवो, त्याविषयी हर्षशोकादी विकारांनी रहित असलेला असतो – तो सात्त्विक म्हटला जातो. ॥ १८-२६ ॥


रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः ।
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः ॥ १८-२७ ॥

Hindi - जो कर्ता आसक्ति से युक्त कर्मों के फल को चाहने वाला और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने के स्वभाववाला, अशुद्धाचारी और हर्ष-शोक से लिप्त है वह राजस कहा गया है ৷৷18.27॥
Marathi - जो कर्ता आसक्ती असलेला, कर्मांच्या फळांची इच्छा बाळगणारा, लोभी, इतरांना पीडा देण्याचा स्वभाव असलेला, अशुद्ध आचरणाचा आणि हर्ष-शोक यांनी युक्त असतो, तो राजस म्हटला जातो. ॥ १८-२७ ॥


अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः ।
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते ॥ १८-२८ ॥

Hindi - जो कर्ता अयुक्त, शिक्षा से रहित घमंडी, धूर्त और दूसरों की जीविका का नाश करने वाला तथा शोक करने वाला, आलसी और दीर्घसूत्री (दीर्घसूत्री उसको कहा जाता है कि जो थोड़े काल में होने लायक साधारण कार्य को भी फिर कर लेंगे, ऐसी आशा से बहुत काल तक नहीं पूरा करता। ) है वह तामस कहा जाता है ৷৷18.28॥
Marathi - जो कर्ता अयुक्त, अशिक्षित, घमेंडखोर, धूर्त, दुसऱ्यांची जीवन-वृत्ती नाहीशी करणारा, शोक करणारा, आळशी आणि दीर्घसूत्री असतो, तो तामस म्हटला जातो. ॥ १८-२८ ॥


बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं शृणु ।
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनञ्जय ॥ १८-२९ ॥

Hindi - हे धनंजय ! अब तू बुद्धि का और धृति का भी गुणों के अनुसार तीन प्रकार का भेद मेरे द्वारा सम्पूर्णता से विभागपूर्वक कहा जाने वाला सुन ৷৷18.29॥
Marathi - हे धनंजया (अर्थात अर्जुना), आता बुद्धीचे व धृतीचेही गुणांनुसार तीन प्रकारचे भेद माझ्याकडून पूर्णपणे विभागपूर्वक सांगितले जात आहेत, ते तू ऐक. ॥ १८-२९ ॥


प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये ।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥ १८-३० ॥

Hindi - हे पार्थ ! जो बुद्धि प्रवृत्तिमार्ग (गृहस्थ में रहते हुए फल और आसक्ति को त्यागकर भगवदर्पण बुद्धि से केवल लोकशिक्षा के लिए राजा जनक की भाँति बरतने का नाम 'प्रवृत्तिमार्ग' है।) और निवृत्ति मार्ग को (देहाभिमान को त्यागकर केवल सच्चिदानंदघन परमात्मा में एकीभाव स्थित हुए श्री शुकदेवजी और सनकादिकों की भाँति संसार से उपराम होकर विचरने का नाम 'निवृत्तिमार्ग' है।), कर्तव्य और अकर्तव्य को, भय और अभय को तथा बंधन और मोक्ष को यथार्थ जानती है- वह बुद्धि सात्त्विकी है ৷৷18.30॥
Marathi - हे पार्था (अर्थात पृथापुत्र अर्जुना), जी बुद्धी प्रवृत्तिमार्ग व निवृत्तिमार्ग, कर्तव्य व अकर्तव्य, भय व अभय तसेच बंधन व मोक्ष यथार्थपणे जाणते, ती सात्त्विक बुद्धी होय. ॥ १८-३० ॥


यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च ।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी ॥ १८-३१ ॥

Hindi - हे पार्थ! मनुष्य जिस बुद्धि के द्वारा धर्म और अधर्म को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को भी यथार्थ नहीं जानता, वह बुद्धि राजसी है ৷৷18.31॥
Marathi - हे पार्था (अर्थात पृथापुत्र अर्जुना), मनुष्य ज्या बुद्धीमुळे धर्म व अधर्म तसेच कर्तव्य व अकर्तव्य यथायोग्य रीतीने जाणत नाही, ती बुद्धी राजसी होय. ॥ १८-३१ ॥


अधर्मं धर्ममिति या मन्यसे तमसावृता ।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी ॥ १८-३२ ॥

Hindi - हे अर्जुन! जो तमोगुण से घिरी हुई बुद्धि अधर्म को भी 'यह धर्म है' ऐसा मान लेती है तथा इसी प्रकार अन्य संपूर्ण पदार्थों को भी विपरीत मान लेती है, वह बुद्धि तामसी है ৷৷18.32॥
Marathi - हे पार्था (अर्थात पृथापुत्र अर्जुना), तमोगुणाने व्यापलेली जी बुद्धी अधर्मालाही हा धर्म आहे असे मानते, तसेच याच रीतीने इतर सर्व पदार्थांनाही विपरीत मानते, ती बुद्धी तामसी होय. ॥ १८-३२ ॥


धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः ।
योगोनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥ १८-३३ ॥

Hindi - हे पार्थ! जिस अव्यभिचारिणी धारण शक्ति (भगवद्विषय के सिवाय अन्य सांसारिक विषयों को धारण करना ही व्यभिचार दोष है, उस दोष से जो रहित है वह 'अव्यभिचारिणी धारणा' है।) से मनुष्य ध्यान योग के द्वारा मन, प्राण और इंद्रियों की क्रियाओं ( मन, प्राण और इंद्रियों को भगवत्प्राप्ति के लिए भजन, ध्यान और निष्काम कर्मों में लगाने का नाम 'उनकी क्रियाओं को धारण करना' है।) को धारण करता है, वह धृति सात्त्विकी है ৷৷18.33॥
Marathi - हे पार्था (अर्थात पृथापुत्र अर्जुना), ज्या अव्यभिचारिणी धारणशक्तीने मनुष्य ध्यानयोगाने मन, प्राण व इंद्रिये यांच्या क्रिया धारण करीत असतो, ती धारणा सात्त्विक होय. ॥ १८-३३ ॥


यया तु धर्मकामार्थान्धृत्या धारयतेऽर्जुन ।
प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी ॥ १८-३४ ॥

Hindi - परंतु हे पृथापुत्र अर्जुन! फल की इच्छावाला मनुष्य जिस धारण शक्ति के द्वारा अत्यंत आसक्ति से धर्म, अर्थ और कामों को धारण करता है, वह धारण शक्ति राजसी है ৷৷18.34॥
Marathi - परंतु हे पार्था (अर्थात पृथापुत्रा) अर्जुना, फळाची इच्छा असलेला मनुष्य अती आसक्तीमुळे ज्या धारणशक्तीने धर्म, Marathi -  व काम यांना धारण करतो, ती धारणा राजसी होय. ॥ १८-३४ ॥


यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च ।
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी ॥ १८-३५ ॥

Hindi - हे पार्थ! दुष्ट बुद्धिवाला मनुष्य जिस धारण शक्ति के द्वारा निद्रा, भय, चिंता और दु:ख को तथा उन्मत्तता को भी नहीं छोड़ता अर्थात धारण किए रहता है- वह धारण शक्ति तामसी है ৷৷18.35॥
Marathi - हे पार्था (अर्थात पृथापुत्र अर्जुना), दुष्ट बुद्धीचा मनुष्य ज्या धारणशक्तीमुळे झोप, भीती, काळजी, दुःख आणि उन्मत्तपणाही सोडत नाही, अर्थात धारण करून राहातो, ती धारणा तामसी होय. ॥ १८-३५ ॥


सुखं त्विदानीं त्रिविधं शृणु मे भरतर्षभ ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति ॥ १८-३६ ॥
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्‌ ।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्‌ ॥ १८-३७ ॥

Hindi - हे भरतश्रेष्ठ! अब तीन प्रकार के सुख को भी तू मुझसे सुन। जिस सुख में साधक मनुष्य भजन, ध्यान और सेवादि के अभ्यास से रमण करता है और जिससे दुःखों के अंत को प्राप्त हो जाता है, जो ऐसा सुख है, वह आरंभकाल में यद्यपि विष के तुल्य प्रतीत (जैसे खेल में आसक्ति वाले बालक को विद्या का अभ्यास मूढ़ता के कारण प्रथम विष के तुल्य भासता है वैसे ही विषयों में आसक्ति वाले पुरुष को भगवद्भजन, ध्यान, सेवा आदि साधनाओं का अभ्यास मर्म न जानने के कारण प्रथम 'विष के तुल्य प्रतीत होता' है) होता है, परन्तु परिणाम में अमृत के तुल्य है, इसलिए वह परमात्मविषयक बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न होने वाला सुख सात्त्विक कहा गया है ৷৷18.36-37॥
Marathi - हे भरतर्षभा (अर्थात भरतवंशीयांमध्ये श्रेष्ठ अर्जुना), आता तीन प्रकारचे सुखही तू माझ्याकडून ऐक. ज्या सुखात साधक भजन, ध्यान आणि सेवा इत्यादींच्या अभ्यासाने रमतो आणि ज्यामुळे त्याचे दुःख नाहीसे होते, जे आरंभी जरी विषाप्रमाणे वाटले, तरी परिणामी अमृताप्रमाणे असते, ते परमात्मविषयक बुद्धीच्या प्रसादाने उत्पन्न होणारे सुख सात्त्विक म्हटले गेले आहे. ॥ १८-३६, १८-३७ ॥


विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्‌ ।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्‌ ॥ १८-३८ ॥

Hindi - जो सुख विषय और इंद्रियों के संयोग से होता है, वह पहले- भोगकाल में अमृत के तुल्य प्रतीत होने पर भी परिणाम में विष के तुल्य (बल, वीर्य, बुद्धि, धन, उत्साह और परलोक का नाश होने से विषय और इंद्रियों के संयोग से होने वाले सुख को 'परिणाम में विष के तुल्य' कहा है) है इसलिए वह सुख राजस कहा गया है ৷৷18.38॥
Marathi - जे सुख विषय आणि इंद्रिये यांच्या संयोगाने उत्पन्न होते, ते प्रथम भोगताना अमृतासारखे वाटत असले तरी परिणामी विषासारखे असते. म्हणून ते सुख राजस म्हटले गेले आहे. ॥ १८-३८ ॥


यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः ।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्‌ ॥ १८-३९ ॥

Hindi - जो सुख भोगकाल में तथा परिणाम में भी आत्मा को मोहित करने वाला है, वह निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न सुख तामस कहा गया है ৷৷18.39॥
Marathi - जे सुख भोगकाळी आणि परिणामीही आत्म्याला मोह पाडणारे असते, ते झोप, आळस व प्रमाद यांपासून उत्पन्न झालेले सुख तामस म्हटले आहे. ॥ १८-३९ ॥


न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु व पुनः ।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः ॥ १८-४० ॥

Hindi - पृथ्वी में या आकाश में अथवा देवताओं में तथा इनके सिवा और कहीं भी ऐसा कोई भी सत्त्व नहीं है, जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से रहित हो ৷৷18.40॥
Marathi - पृथ्वीवर, आकाशात किंवा देवांत तसेच यांच्याशिवाय इतरत्र कोठेही असा कोणताच प्राणी किंवा पदार्थ नाही की, जो प्रकृतीपासून उत्पन्न झालेल्या या तीन गुणांनी रहित असेल. ॥ १८-४० ॥


ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप ।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः ॥ १८-४१ ॥

Hindi - हे परंतप! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों द्वारा विभक्त किए गए हैं ৷৷18.41॥
Marathi - हे परंतपा (अर्थात शत्रुतापना अर्जुना), ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आणि शूद्र यांची कर्मे स्वभावतः उत्पन्न झालेल्या गुणांमुळे निरनिराळी केली गेली आहेत. ॥ १८-४१ ॥


शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्‌ ॥ १८-४२ ॥

Hindi - अंतःकरण का निग्रह करना, इंद्रियों का दमन करना, धर्मपालन के लिए कष्ट सहना, बाहर-भीतर से शुद्ध (गीता अध्याय 13 श्लोक 7 की टिप्पणी में देखना चाहिए) रहना, दूसरों के अपराधों को क्षमा करना, मन, इंद्रिय और शरीर को सरल रखना, वेद, शास्त्र, ईश्वर और परलोक आदि में श्रद्धा रखना, वेद-शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना और परमात्मा के तत्त्व का अनुभव करना- ये सब-के-सब ही ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं ৷৷18.42॥
Marathi - अंतःकरणाचा निग्रह, इंद्रियांवर ताबा ठेवणे, धर्मासाठी कष्ट सहन करणे, अंतर्बाह्य शुद्ध राहणे, दुसऱ्यांच्या अपराधांना क्षमा करणे, मन, इंद्रिये व शरीर सरळ राखणे, वेद, शास्त्र, ईश्वर व परलोक इत्यादींवर विश्वास ठेवणे, वेदशास्त्रांचे अध्ययन-अध्यापन करणे आणि परमात्मतत्त्वाचा अनुभव घेणे, ही सर्वच्या सर्व ब्राह्मणाची स्वाभाविक कर्मे आहेत. ॥ १८-४२ ॥


शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्‌ ।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्‌ ॥ १८-४३ ॥

Hindi - शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में न भागना, दान देना और स्वामिभाव- ये सब-के-सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं ৷৷18.43॥
Marathi - शौर्य, तेज, धैर्य, चातुर्य, युद्धातून पलायन न करणे, दान देणे आणि स्वामिभाव ही सर्वच्या सर्व क्षत्रियांची स्वाभाविक कर्मे आहेत. ॥ १८-४३ ॥


कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्‌ ।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्‌ ॥ १८-४४ ॥

Hindi - खेती, गोपालन और क्रय-विक्रय रूप सत्य व्यवहार (वस्तुओं के खरीदने और बेचने में तौल, नाप और गिनती आदि से कम देना अथवा अधिक लेना एवं वस्तु को बदलकर या एक वस्तु में दूसरी या खराब वस्तु मिलाकर दे देना अथवा अच्छी ले लेना तथा नफा, आढ़त और दलाली ठहराकर उससे अधिक दाम लेना या कम देना तथा झूठ, कपट, चोरी और जबरदस्ती से अथवा अन्य किसी प्रकार से दूसरों के हक को ग्रहण कर लेना इत्यादि दोषों से रहित जो सत्यतापूर्वक पवित्र वस्तुओं का व्यापार है उसका नाम 'सत्य व्यवहार' है।) ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं तथा सब वर्णों की सेवा करना शूद्र का भी स्वाभाविक कर्म है ৷৷18.44॥
Marathi - शेती, गोपालन आणि क्रय-विक्रयरूप सत्य व्यवहार ही वैश्याची स्वाभाविक कर्मे आहेत. तसेच सर्व वर्णांची सेवा करणे हे शूद्राचेही स्वाभाविक कर्म आहे. ॥ १८-४४ ॥


स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ॥ १८-४५ ॥

Hindi - अपने-अपने स्वाभाविक कर्मों में तत्परता से लगा हुआ मनुष्य भगवत्प्राप्ति रूप परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है। अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार से कर्म करके परमसिद्धि को प्राप्त होता है, उस विधि को तू सुन ৷৷18.45॥
Marathi - आपापल्या स्वाभाविक कर्मांत तत्पर असलेल्या मनुष्यास भगवत्प्राप्तिरूप परम सिद्धीचा लाभ होतो. आपल्या स्वाभाविक कर्मात रत असलेला मनुष्य ज्या रीतीने कर्म करून परमसिद्धीला प्राप्त होतो, ती रीत तू ऐक. ॥ १८-४५ ॥


यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्‌ ।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥ १८-४६ ॥

Hindi - जिस परमेश्वर से संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत्‌ व्याप्त है (जैसे बर्फ जल से व्याप्त है, वैसे ही संपूर्ण संसार सच्चिदानंदघन परमात्मा से व्याप्त है), उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके (जैसे पतिव्रता स्त्री पति को सर्वस्व समझकर पति का चिंतन करती हुई पति के आज्ञानुसार पति के ही लिए मन, वाणी, शरीर से कर्म करती है, वैसे ही परमेश्वर को ही सर्वस्व समझकर परमेश्वर का चिंतन करते हुए परमेश्वर की आज्ञा के अनुसार मन, वाणी और शरीर से परमेश्वर के ही लिए स्वाभाविक कर्तव्य कर्म का आचरण करना 'कर्म द्वारा परमेश्वर को पूजना' है) मनुष्य परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है ৷৷18.46॥
Marathi - ज्या परमेश्वरापासून सर्व प्राण्यांची उत्पत्ती झाली आहे आणि ज्याने हे सर्व जग व्यापले आहे, त्या परमेश्वराची आपल्या स्वाभाविक कर्मांनी पूजा करून मनुष्य परमसिद्धी मिळवितो. ॥ १८-४६ ॥


श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌ ।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्‌ ॥ १८-४७ ॥

Hindi - अच्छी प्रकार आचरण किए हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है, क्योंकि स्वभाव से नियत किए हुए स्वधर्मरूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता ৷৷18.47॥
Marathi - उत्तम प्रकारे आचरिलेल्या दुसऱ्याच्या धर्मापेक्षा वैगुण्य असलेलाही आपला धर्म श्रेष्ठ आहे. कारण स्वभावाने नेमून दिलेले स्वधर्मरूप कर्म करणाऱ्या माणसाला पाप लागत नाही. ॥ १८-४७ ॥


सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्‌ ।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः ॥ १८-४८ ॥

Hindi - अतएव हे कुन्तीपुत्र! दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म (प्रकृति के अनुसार शास्त्र विधि से नियत किए हुए वर्णाश्रम के धर्म और सामान्य धर्मरूप स्वाभाविक कर्म हैं उनको ही यहाँ स्वधर्म, सहज कर्म, स्वकर्म, नियत कर्म, स्वभावज कर्म, स्वभावनियत कर्म इत्यादि नामों से कहा है) को नहीं त्यागना चाहिए, क्योंकि धूएँ से अग्नि की भाँति सभी कर्म किसी-न-किसी दोष से युक्त हैं ৷৷18.48॥
Marathi - म्हणूनच हे कौंतेया (अर्थात कुंतीपुत्र अर्जुना), सदोष असले तरीही स्वाभाविक कर्म सोडून देऊ नये. कारण धुराने जसा अग्नी, तशी सर्व कर्मे कोणत्या ना कोणत्या दोषाने युक्त असतात. ॥ १८-४८ ॥


असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः ।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति ॥ १८-४९ ॥

Hindi - सर्वत्र आसक्तिरहित बुद्धिवाला, स्पृहारहित और जीते हुए अंतःकरण वाला पुरुष सांख्ययोग के द्वारा उस परम नैष्कर्म्यसिद्धि को प्राप्त होता है ৷৷18.49॥
Marathi - सर्वत्र आसक्तिरहित बुद्धी असलेला, निःस्पृह आणि अंतःकरण जिंकलेला मनुष्य सांख्ययोगाने त्या श्रेष्ठ नैष्कर्म्यसिद्धीला प्राप्त होतो. ॥ १८-४९ ॥


सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे ।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा ॥ १८-५० ॥

Hindi - जो कि ज्ञान योग की परानिष्ठा है, उस नैष्कर्म्य सिद्धि को जिस प्रकार से प्राप्त होकर मनुष्य ब्रह्म को प्राप्त होता है, उस प्रकार को हे कुन्तीपुत्र! तू संक्षेप में ही मुझसे समझ ৷৷18.50॥
Marathi - हे कौंतेया (अर्थात कुंतीपुत्र अर्जुना), जी ज्ञानयोगाची अंतिम स्थिती आहे, त्या नैष्कर्म्यसिद्धीला ज्या रीतीने प्राप्त होऊन मनुष्य ब्रह्माला प्राप्त होतो, ती रीत थोडक्यात तू माझ्याकडून समजून घे. ॥ १८-५० ॥


बुद्ध्या विशुद्ध्या युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च ।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च ॥ १८-५१ ॥
विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः ।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः ॥ १८-५२ ॥
अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्‌ ।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ १८-५३ ॥

Hindi - विशुद्ध बुद्धि से युक्त तथा हलका, सात्त्विक और नियमित भोजन करने वाला, शब्दादि विषयों का त्याग करके एकांत और शुद्ध देश का सेवन करने वाला, सात्त्विक धारण शक्ति के (इसी अध्याय के श्लोक 33 में जिसका विस्तार है) द्वारा अंतःकरण और इंद्रियों का संयम करके मन, वाणी और शरीर को वश में कर लेने वाला, राग-द्वेष को सर्वथा नष्ट करके भलीभाँति दृढ़ वैराग्य का आश्रय लेने वाला तथा अहंकार, बल, घमंड, काम, क्रोध और परिग्रह का त्याग करके निरंतर ध्यान योग के परायण रहने वाला, ममतारहित और शांतियुक्त पुरुष सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में अभिन्नभाव से स्थित होने का पात्र होता है ৷৷18.51-53॥
Marathi - विशुद्ध बुद्धीने युक्त; हलके, सात्त्विक आणि नियमीत भोजन घेणारा; शब्दादी विषयांचा त्याग करून, एकांतात शुद्ध ठिकाणी राहणारा; सात्त्विक धारणाशक्तीने अंतःकरण व इंद्रिये यांच्यावर संयम ठेवून, मन, वाणी आणि शरीर ताब्यात ठेवणारा; राग-द्वेष पूर्णपणे नाहीसे करून चांगल्या प्रकारे दृढ वैराग्याचा आश्रय घेणारा; अहंकार, बळ, घमेंड, कामना, क्रोध, संग्रहवृत्ती यांचा त्याग करून नेहमी ध्यानयोगात तत्पर असणारा; ममतारहित व शांतियुक्त असा पुरुष सच्चिदानंदघन ब्रह्मामध्ये एकरूप होऊन राहण्यास पात्र होतो. ॥ १८-५१, १८-५२, १८-५३ ॥


ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति ।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्‌ ॥ १८-५४ ॥

Hindi - फिर वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में एकीभाव से स्थित, प्रसन्न मनवाला योगी न तो किसी के लिए शोक करता है और न किसी की आकांक्षा ही करता है। ऐसा समस्त प्राणियों में समभाव वाला (गीता अध्याय 6 श्लोक 29 में देखना चाहिए) योगी मेरी पराभक्ति को ( जो तत्त्व ज्ञान की पराकाष्ठा है तथा जिसको प्राप्त होकर और कुछ जानना बाकी नहीं रहता वही यहाँ पराभक्ति, ज्ञान की परानिष्ठा, परम नैष्कर्म्यसिद्धि और परमसिद्धि इत्यादि नामों से कही गई है) प्राप्त हो जाता है ৷৷18.54॥
Marathi - मग तो सच्चिदानंदघन ब्रह्मात तद्रूप झालेला प्रसन्न चित्ताचा योगी कशाबद्दलही शोक करीत नाही आणि कशाचीही इच्छा करीत नाही. असा सर्व प्राण्यांच्या ठिकाणी सम भाव बाळगणारा योगी माझ्या पराभक्तीला प्राप्त होतो. ॥ १८-५४ ॥


भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः ।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्‌ ॥ १८-५५ ॥

Hindi - उस पराभक्ति के द्वारा वह मुझ परमात्मा को, मैं जो हूँ और जितना हूँ, ठीक वैसा-का-वैसा तत्त्व से जान लेता है तथा उस भक्ति से मुझको तत्त्व से जानकर तत्काल ही मुझमें प्रविष्ट हो जाता है ৷৷18.55॥
Marathi - त्या पराभक्तीच्या योगाने तो मज परमात्म्याला मी जो आणि जसा आहे, अगदी बरोबर तसाच तत्त्वतः जाणतो, तसेच त्या भक्तीने मला तत्त्वतः जाणून त्याचवेळी माझ्यात प्रविष्ट होतो. ॥ १८-५५ ॥


सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः ।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्‌ ॥ १८-५६ ॥

Hindi - मेरे परायण हुआ कर्मयोगी तो संपूर्ण कर्मों को सदा करता हुआ भी मेरी कृपा से सनातन अविनाशी परमपद को प्राप्त हो जाता है ৷৷18.56॥
Marathi - माझ्या आश्रयाने राहणारा कर्मयोगी सर्व कर्मे नेहमी करीत असला तरी माझ्या कृपेने सनातन अविनाशी परमपदाला प्राप्त होतो. ॥ १८-५६ ॥


चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः ।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ॥ १८-५७ ॥

Hindi - सब कर्मों को मन से मुझमें अर्पण करके (गीता अध्याय 9 श्लोक 27 में जिसकी विधि कही है) तथा समबुद्धि रूप योग को अवलंबन करके मेरे परायण और निरंतर मुझमें चित्तवाला हो ৷৷18.57॥
Marathi - सर्व कर्मे मनाने माझ्या ठिकाणी अर्पण करून तसेच समबुद्धीरूप योगाचा अवलंब करून मत्परायण आणि निरंतर माझ्या ठिकाणी चित्त असलेला हो. ॥ १८-५७ ॥


मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि ।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि ॥ १८-५८ ॥

Hindi - उपर्युक्त प्रकार से मुझमें चित्तवाला होकर तू मेरी कृपा से समस्त संकटों को अनायास ही पार कर जाएगा और यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को न सुनेगा तो नष्ट हो जाएगा अर्थात परमार्थ से भ्रष्ट हो जाएगा ৷৷18.58॥
Marathi - वर सांगितल्याप्रमाणे माझ्या ठिकाणी चित्त ठेवल्याने तू माझ्या कृपेने सर्व संकटातून सहजच पार होशील आणि जर अहंकारामुळे माझे सांगणे न ऐकशील, तर नष्ट होशील अर्थात परमार्थाला मुकशील. ॥ १८-५८ ॥


यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे ।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ॥ १८-५९ ॥

Hindi - जो तू अहंकार का आश्रय लेकर यह मान रहा है कि 'मैं युद्ध नहीं करूँगा' तो तेरा यह निश्चय मिथ्या है, क्योंकि तेरा स्वभाव तुझे जबर्दस्ती युद्ध में लगा देगा ৷৷18.59॥
Marathi - तू अहंकार धरून मी युद्ध करणार नाही, असे मानतोस, तो तुझा निश्चय व्यर्थ आहे, कारण तुझा स्वभाव तुला जबरदस्तीने युद्ध करावयास लावील. ॥ १८-५९ ॥


स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा ।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत्‌ ॥ १८-६० ॥

Hindi - हे कुन्तीपुत्र! जिस कर्म को तू मोह के कारण करना नहीं चाहता, उसको भी अपने पूर्वकृत स्वाभाविक कर्म से बँधा हुआ परवश होकर करेगा ৷৷18.60॥
Marathi - हे कौंतेया (अर्थात कुंतीपुत्र अर्जुना), जे कर्म तू मोहामुळे करू इच्छित नाहीस, तेही आपल्या पूर्वकृत स्वाभाविक कर्माने बद्ध असल्यामुळे पराधीन होऊन करशील. ॥ १८-६० ॥


ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥ १८-६१ ॥

Hindi - हे अर्जुन! शरीर रूप यंत्र में आरूढ़ हुए संपूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है ৷৷18.61॥
Marathi - हे अर्जुना, अंतर्यामी परमेश्वर आपल्या मायेने शरीररूपी यंत्रावर आरूढ झालेल्या सर्व प्राण्यांना त्यांच्या कर्मांनुसार फिरवीत सर्व प्राण्यांच्या हृदयात राहिला आहे. ॥ १८-६१ ॥


तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत ।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्‌ ॥ १८-६२ ॥

Hindi - हे भारत! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण में (लज्जा, भय, मान, बड़ाई और आसक्ति को त्यागकर एवं शरीर और संसार में अहंता, ममता से रहित होकर एक परमात्मा को ही परम आश्रय, परम गति और सर्वस्व समझना तथा अनन्य भाव से अतिशय श्रद्धा, भक्ति और प्रेमपूर्वक निरंतर भगवान के नाम, गुण, प्रभाव और स्वरूप का चिंतन करते रहना एवं भगवान का भजन, स्मरण करते हुए ही उनके आज्ञा अनुसार कर्तव्य कर्मों का निःस्वार्थ भाव से केवल परमेश्वर के लिए आचरण करना यह 'सब प्रकार से परमात्मा के ही शरण' होना है) जा। उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शांति को तथा सनातन परमधाम को प्राप्त होगा ৷৷18.62॥
Marathi - हे भारता (अर्थात भरतवंशी अर्जुना), तू सर्व प्रकारे त्या परमेश्वरालाच शरण जा. त्या परमात्म्याच्या कृपेनेच तुला परमशांती आणि सनातन परमधाम मिळेल. ॥ १८-६२ ॥


इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्‍गुह्यतरं मया ।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु ॥ १८-६३ ॥

Hindi - इस प्रकार यह गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुमसे कह दिया। अब तू इस रहस्ययुक्त ज्ञान को पूर्णतया भलीभाँति विचार कर, जैसे चाहता है वैसे ही कर ৷৷18.63॥
Marathi - अशा प्रकारे हे गोपनीयाहूनही अतिगोपनीय ज्ञान मी तुला सांगितले. आता तू या रहस्यमय ज्ञानाचा संपूर्णपणे चांगला विचार करून मग जसे तुला आवडेल तसे कर. ॥ १८-६३ ॥


सर्वगुह्यतमं भूयः शृणु मे परमं वचः ।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्‌ ॥ १८-६४ ॥

Hindi - संपूर्ण गोपनीयों से अति गोपनीय मेरे परम रहस्ययुक्त वचन को तू फिर भी सुन। तू मेरा अतिशय प्रिय है, इससे यह परम हितकारक वचन मैं तुझसे कहूँगा ৷৷18.64॥
Marathi - सर्व गोपनीयांहून अतिगोपनीय माझे परम रहस्ययुक्त वचन तू पुन्हा ऐक. तू माझा अत्यंत आवडता आहेस, म्हणून हे परम हितकारक वचन मी तुला सांगणार आहे. ॥ १८-६४ ॥


मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥ १८-६५ ॥

Hindi - हे अर्जुन! तू मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझको प्रणाम कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा, यह मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ क्योंकि तू मेरा अत्यंत प्रिय है ৷৷18.65॥
Marathi - तू माझ्या ठिकाणी मन ठेव. माझा भक्त हो. माझे पूजन कर आणि मला नमस्कार कर. असे केले असता तू मलाच येऊन मिळशील. हे मी तुला सत्य प्रतिज्ञापूर्वक सांगतो. कारण तू माझा अत्यंत आवडता आहेस. ॥ १८-६५ ॥


सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥ १८-६६ ॥

Hindi - संपूर्ण धर्मों को अर्थात संपूर्ण कर्तव्य कर्मों को मुझमें त्यागकर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण (इसी अध्याय के श्लोक 62 की टिप्पणी में शरण का भाव देखना चाहिए।) में आ जा। मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर ৷৷18.66॥
Marathi - सर्व धर्म म्हणजे सर्व कर्तव्यकर्मे मला अर्पण करून तू केवळ सर्वशक्तिमान, सर्वाधार अशा मला परमेश्वरालाच शरण ये. मी तुला सर्व पापांपासून सोडवीन. तू शोक करू नकोस. ॥ १८-६६ ॥


इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन ।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ॥ १८-६७ ॥

Hindi - तुझे यह गीत रूप रहस्यमय उपदेश किसी भी काल में न तो तपरहित मनुष्य से कहना चाहिए, न भक्ति-(वेद, शास्त्र और परमेश्वर तथा महात्मा और गुरुजनों में श्रद्धा, प्रेम और पूज्य भाव का नाम 'भक्ति' है।)-रहित से और न बिना सुनने की इच्छा वाले से ही कहना चाहिए तथा जो मुझमें दोषदृष्टि रखता है, उससे तो कभी भी नहीं कहना चाहिए ৷৷18.67॥
Marathi - हा गीतारूप रहस्यमय उपदेश कधीही तप न करणाऱ्या माणसाला सांगू नये. तसेच भक्तिहीन माणसाला आणि ऐकण्याची इच्छा नसणाऱ्यालाही सांगू नये. त्याचप्रमाणे माझ्यामध्ये दोष पाहणाऱ्याला तर कधीही सांगू नये. ॥ १८-६७ ॥


य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति ।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ॥ १८-६८ ॥

Hindi - जो पुरुष मुझमें परम प्रेम करके इस परम रहस्ययुक्त गीताशास्त्र को मेरे भक्तों में कहेगा, वह मुझको ही प्राप्त होगा- इसमें कोई संदेह नहीं है ৷৷18.68॥
Marathi - जो पुरुष माझ्या ठिकाणी परम प्रेम ठेवून हे परम रहस्ययुक्त गीताशास्त्र माझ्या भक्तांना सांगेल, तो मलाच प्राप्त होईल, यात मुळीच शंका नाही. ॥ १८-६८ ॥


न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः ।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ॥ १८-६९ ॥

Hindi - उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है तथा पृथ्वीभर में उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्य में होगा भी नहीं ৷৷18.69॥
Marathi - माझे अत्यंत प्रिय कार्य करणारा त्याच्याहून अधिक मनुष्यांत कोणीही नाही. तसेच पृथ्वीवर त्याच्याहून अधिक मला प्रिय दुसरा कोणी भविष्यकाळी होणारही नाही. ॥ १८-६९ ॥


अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः ।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः ॥ १८-७० ॥

Hindi - जो पुरुष इस धर्ममय हम दोनों के संवाद रूप गीताशास्त्र को पढ़ेगा, उसके द्वारा भी मैं ज्ञानयज्ञ (गीता अध्याय 4 श्लोक 33 का अर्थ देखना चाहिए।) से पूजित होऊँगा- ऐसा मेरा मत है ৷৷18.70॥
Marathi - जो पुरुष आम्हा दोघांच्या धर्ममय संवादरूप या गीताशास्त्राचे अध्ययन करील, त्याच्याकडूनही मी ज्ञानयज्ञाने पूजित होईन, असे माझे मत आहे. ॥ १८-७० ॥


श्रद्धावाननसूयश्च शृणुयादपि यो नरः ।
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्‌ ॥ १८-७१ ॥

Hindi - जो मनुष्य श्रद्धायुक्त और दोषदृष्टि से रहित होकर इस गीताशास्त्र का श्रवण भी करेगा, वह भी पापों से मुक्त होकर उत्तम कर्म करने वालों के श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होगा ৷৷18.৷৷71॥
Marathi - जो मनुष्य श्रद्धायुक्त होऊन दोषदृष्टी न ठेवता या गीताशास्त्राचे श्रवण करील, तोही पापांपासून मुक्त होऊन पुण्यकर्मे करणाऱ्यांच्या श्रेष्ठ लोकांना प्राप्त होईल. ॥ १८-७१ ॥


कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा ।
कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय ॥ १८-७२ ॥

Hindi - हे पार्थ! क्या इस (गीताशास्त्र) को तूने एकाग्रचित्त से श्रवण किया? और हे धनञ्जय! क्या तेरा अज्ञानजनित मोह नष्ट हो गया?৷৷18.72॥
Marathi - हे पार्था (अर्थात पृथापुत्र अर्जुना), हे गीताशास्त्र तू एकाग्र चित्ताने ऐकलेस का? आणि हे धनंजया (अर्थात अर्जुना), तुझा अज्ञानातून उत्पन्न झालेला मोह नाहीसा झाला का? ॥ १८-७२ ॥


अर्जुन उवाच
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत ।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ॥ १८-७३ ॥

Hindi - अर्जुन बोले- हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है, अब मैं संशयरहित होकर स्थिर हूँ, अतः आपकी आज्ञा का पालन करूँगा ৷৷18.73॥
Marathi - अर्जुन म्हणाला, हे अच्युता (अर्थात श्रीकृष्णा), आपल्या कृपेने माझा मोह नाहीसा झाला आणि मला स्मृती प्राप्त झाली. आता मी संशयरहित होऊन राहिलो आहे. म्हणून मी आपल्या आज्ञेचे पालन करीन. ॥ १८-७३ ॥


सञ्जय उवाच
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः ।
संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्‌ ॥ १८-७४ ॥

Hindi - संजय बोले- इस प्रकार मैंने श्री वासुदेव के और महात्मा अर्जुन के इस अद्‍भुत रहस्ययुक्त, रोमांचकारक संवाद को सुना ৷৷18.74॥
Marathi - संजय म्हणाले, अशा प्रकारे मी श्रीवासुदेव आणि महात्मा पार्थ (अर्थात पृथापुत्र अर्जुन) यांचा हा अद्‌भुत रहस्यमय रोमांचकारक संवाद ऐकला. ॥ १८-७४ ॥


व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्‍गुह्यमहं परम्‌ ।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्‌ ॥ १८-७५ ॥

Hindi - श्री व्यासजी की कृपा से दिव्य दृष्टि पाकर मैंने इस परम गोपनीय योग को अर्जुन के प्रति कहते हुए स्वयं योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण से प्रत्यक्ष सुना ৷৷18.75॥
Marathi - श्रीव्यासांच्या कृपेने दिव्य दृष्टी मिळवून मी हा परम गोपनीय योग अर्जुनाला सांगत असताना स्वतः योगेश्वर भगवान श्रीकृष्णांकडून प्रत्यक्ष ऐकला आहे. ॥ १८-७५ ॥


राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्‌ ।
केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः ॥ १८-७६ ॥

Hindi - हे राजन! भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के इस रहस्ययुक्त, कल्याणकारक और अद्‍भुत संवाद को पुनः-पुनः स्मरण करके मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ ৷৷18.76॥
Marathi - हे महाराज (धृतराष्ट्र), भगवान केशव (अर्थात श्रीकृष्ण) आणि अर्जुन यांचा हा रहस्यमय, कल्याणकारक आणि अद्‍भुत संवाद पुन्हा पुन्हा आठवून मी वारंवार आनंदित होत आहे. ॥ १८-७६ ॥


तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः ।
विस्मयो मे महान्‌ राजन्हृष्यामि च पुनः पुनः ॥ १८-७७ ॥

Hindi - हे राजन्‌! श्रीहरि (जिसका स्मरण करने से पापों का नाश होता है उसका नाम 'हरि' है) के उस अत्यंत विलक्षण रूप को भी पुनः-पुनः स्मरण करके मेरे चित्त में महान आश्चर्य होता है और मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ ৷৷18.77॥
Marathi - हे महाराज (धृतराष्ट्र), श्रीहरीचे ते अत्यंत अलौकिक रूपही वरचेवर आठवून माझ्या मनाला खूप आश्चर्य वाटत आहे आणि मी वारंवार हर्षपुलकित होत आहे. ॥ १८-७७ ॥


यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥ १८-७८ ॥

Hindi - हे राजन! जहाँ योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन है, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है- ऐसा मेरा मत है ৷৷18.78॥
Marathi - जेथे योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण आहेत आणि जेथे गांडीव धनुष्य धारण करणारा पार्थ (अर्थात पृथापुत्र अर्जुन) आहे, तेथेच श्री, विजय, विभूती आणि अचल नीती आहे, असे माझे मत आहे. ॥ १८-७८ ॥


ॐ तत्सदिति श्रीमद्‌भगवद्‌गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे
मोक्षसंन्यासयोगो नामाष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥