श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय १७ : श्रद्धात्रयविभागयोग

Shrimad Bhagavad Gita - Adhyay 17- Sanskrit, Hindi, Marathi | अर्जुन उवाच, ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः । तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ॥ १७-१ ॥

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श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय १७ : श्रद्धात्रयविभागयोग

भारतीय संस्कृति में गीता का स्थान इतना महत्वपूर्ण है कि गीता को 'योगोपनिषद' या 'गीतोपनिषद' कहा जाता है और इसे उपनिषद का दर्जा दिया गया है। आज हम श्रीमद्भगवद्गीता को हिन्दी और मराठी में जानने कि कोशिश करे|

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अथ सप्तदशोऽध्यायः श्रद्धात्रयविभागयोग

अर्जुन उवाच
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ॥ १७-१ ॥

Hindi - अर्जुन बोले- हे कृष्ण! जो मनुष्य शास्त्र विधि को त्यागकर श्रद्धा से युक्त हुए देवादिका पूजन करते हैं, उनकी स्थिति फिर कौन-सी है? सात्त्विकी है अथवा राजसी किंवा तामसी? ৷৷17.1॥
Marathi - अर्जुन म्हणाला, हे श्रीकृष्णा, जी माणसे शास्त्रविधीला सोडून श्रद्धेने युक्त होऊन देवादिकांचे पूजन करतात, त्यांची मग स्थिती कोणती? सात्त्विक, राजस की तामस? ॥ १७-१ ॥


श्रीभगवानुवाच
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा ।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु ॥ १७-२ ॥

Hindi - श्री भगवान्‌ बोले- मनुष्यों की वह शास्त्रीय संस्कारों से रहित केवल स्वभाव से उत्पन्न श्रद्धा (अनन्त जन्मों में किए हुए कर्मों के सञ्चित संस्कार से उत्पन्न हुई श्रद्धा ''स्वभावजा'' श्रद्धा कही जाती है।) सात्त्विकी और राजसी तथा तामसी- ऐसे तीनों प्रकार की ही होती है। उसको तू मुझसे सुन ৷৷17.2॥
Marathi - भगवान श्रीकृष्ण म्हणाले, मनुष्यांची ती शास्त्रीय संस्कार नसलेली, केवळ स्वभावतः उत्पन्न झालेली श्रद्धा सात्त्विक, राजस व तामस अशा तीन प्रकारचीच असते. ती तू माझ्याकडून ऐक. ॥ १७-२ ॥


सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत ।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः ॥ १७-३ ॥

Hindi - हे भारत! सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अन्तःकरण के अनुरूप होती है। यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला है, वह स्वयं भी वही है ৷৷17.3॥
Marathi - हे भारता (अर्थात भरतवंशी अर्जुना), सर्व माणसांची श्रद्धा त्यांच्या अंतःकरणानुरूप असते. हा पुरुष श्रद्धामय आहे. म्हणून जो पुरुष ज्या श्रद्धेने युक्त आहे, तो स्वतःही तोच आहे (अर्थात त्या श्रद्धेनुसार त्याचे स्वरूप असते). ॥ १७-३ ॥


यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः ।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः ॥ १७-४ ॥

Hindi - सात्त्विक पुरुष देवों को पूजते हैं, राजस पुरुष यक्ष और राक्षसों को तथा अन्य जो तामस मनुष्य हैं, वे प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं ৷৷17.4॥
Marathi - सात्त्विक माणसे देवांची पूजा करतात. राजस माणसे यक्ष-राक्षसांची तसेच इतर तामस माणसे असतात, ती प्रेत व भूतगणांची पूजा करतात. ॥ १७-४ ॥


अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः ।
दम्भाहङ्कारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः ॥ १७-५ ॥

Hindi - जो मनुष्य शास्त्र विधि से रहित केवल मनःकल्पित घोर तप को तपते हैं तथा दम्भ और अहंकार से युक्त एवं कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से भी युक्त हैं ৷৷17.5॥
Marathi - जी माणसे शास्त्रविधी सोडून केवळ मनाच्या कल्पनेप्रमाणे घोर तप करतात तसेच दंभ, अहंकार, कामना, आसक्ती आणि बळाचा अभिमान यांनी युक्त असतात ॥ १७-५ ॥


कर्शयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः ।
मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान्‌ ॥ १७-६ ॥

Hindi - जो शरीर रूप से स्थित भूत समुदाय को और अन्तःकरण में स्थित मुझ परमात्मा को भी कृश करने वाले हैं (शास्त्र से विरुद्ध उपवासादि घोर आचरणों द्वारा शरीर को सुखाना एवं भगवान्‌ के अंशस्वरूप जीवात्मा को क्लेश देना, भूत समुदाय को और अन्तर्यामी परमात्मा को ''कृश करना'' है।), उन अज्ञानियों को तू आसुर स्वभाव वाले जान ৷৷17.6॥
Marathi - जे शरीराच्या रूपात असलेल्या भूतसमुदायाला आणि अंतःकरणात राहणाऱ्या मलाही कृश करणारे असतात, ते अज्ञानी लोक आसुरी स्वभावाचे आहेत, असे तू जाण. ॥ १७-६ ॥


आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः ।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं शृणु ॥ १७-७ ॥

Hindi - भोजन भी सबको अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार तीन प्रकार का प्रिय होता है। और वैसे ही यज्ञ, तप और दान भी तीन-तीन प्रकार के होते हैं। उनके इस पृथक्‌-पृथक्‌ भेद को तू मुझ से सुन ৷৷17.7॥
Marathi - भोजनही सर्वांना आपापल्या प्रकृतीप्रमाणे तीन प्रकारचे प्रिय असते. आणि तसेच यज्ञ, तप व दानही तीन तीन प्रकारची आहेत. त्यांचे हे निरनिराळे भेद तू माझ्याकडून ऐक. ॥ १७-७ ॥


आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः ।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः ॥ १७-८ ॥

Hindi - आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले, रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहने वाले (जिस भोजन का सार शरीर में बहुत काल तक रहता है, उसको स्थिर रहने वाला कहते हैं।) तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय- ऐसे आहार अर्थात्‌ भोजन करने के पदार्थ सात्त्विक पुरुष को प्रिय होते हैं ৷৷17.8॥
Marathi - आयुष्य, बुद्धी, बळ, आरोग्य, सुख आणि प्रीती वाढविणारे, रसयुक्त, स्निग्ध, स्थिर राहणारे, स्वभावतः मनाला प्रिय वाटणारे असे भोजनाचे पदार्थ सात्त्विक पुरुषांना प्रिय असतात. ॥ १७-८ ॥


कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः ।
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ॥ १७-९ ॥

Hindi - कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, बहुत गरम, तीखे, रूखे, दाहकारक और दुःख, चिन्ता तथा रोगों को उत्पन्न करने वाले आहार अर्थात्‌ भोजन करने के पदार्थ राजस पुरुष को प्रिय होते हैं ৷৷17.9॥
Marathi - कडू, आंबट, खारट, फार गरम, तिखट, कोरडे, जळजळणारे आणि दुःख, काळजी व रोग उत्पन्न करणारे भोजनाचे पदार्थ राजस माणसांना आवडतात. ॥ १७-९ ॥


यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्‌ ।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्‌ ॥ १७-१० ॥

Hindi - जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गन्धयुक्त, बासी और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र भी है, वह भोजन तामस पुरुष को प्रिय होता है ৷৷17.10॥
Marathi - जे भोजन कच्चे, रस नसलेले, दुर्गंध येणारे, शिळे आणि उष्टे असते, तसेच जे अपवित्रही असते, ते भोजन तामसी लोकांना आवडते. ॥ १७-१० ॥


अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते ।
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः ॥ १७-११ ॥

Hindi - जो शास्त्र विधि से नियत, यज्ञ करना ही कर्तव्य है- इस प्रकार मन को समाधान करके, फल न चाहने वाले पुरुषों द्वारा किया जाता है, वह सात्त्विक है ৷৷17.11॥
Marathi - जो शास्त्रविधीने नेमून दिलेला, यज्ञ करणे कर्तव्य आहे, असे मनाचे समाधान करून फळाची इच्छा न करणाऱ्या पुरुषांकडून केला जातो, तो सात्त्विक यज्ञ होय. ॥ १७-११ ॥


अभिसन्धाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्‌ ।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्‌ ॥ १७-१२ ॥

Hindi - परन्तु हे अर्जुन! केवल दम्भाचरण के लिए अथवा फल को भी दृष्टि में रखकर जो यज्ञ किया जाता है, उस यज्ञ को तू राजस जान ৷৷17.12॥
Marathi - परंतु हे भरतश्रेष्ठा (अर्थात भरतवंशीयांमध्ये श्रेष्ठ अर्जुना), केवळ दिखाव्यासाठी किंवा फळही नजरेसमोर ठेवून जो यज्ञ केला जातो, तो यज्ञ तू राजस समज. ॥ १७-१२ ॥


विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्‌ ।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते ॥ १७-१३ ॥

Hindi - शास्त्रविधि से हीन, अन्नदान से रहित, बिना मन्त्रों के, बिना दक्षिणा के और बिना श्रद्धा के किए जाने वाले यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं ৷৷17.13॥
Marathi - शास्त्राला सोडून, अन्नदान न करता, मंत्रांशिवाय, दक्षिणा न देता व श्रद्धा न ठेवता केल्या जाणाऱ्या यज्ञाला तामस यज्ञ असे म्हणतात. ॥ १७-१३ ॥


देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्‌ ।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥ १७-१४ ॥

Hindi - देवता, ब्राह्मण, गुरु (यहाँ 'गुरु' शब्द से माता, पिता, आचार्य और वृद्ध एवं अपने से जो किसी प्रकार भी बड़े हों, उन सबको समझना चाहिए।) और ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा- यह शरीर- सम्बन्धी तप कहा जाता है ৷৷17.14॥
Marathi - देव, ब्राह्मण, गुरू व ज्ञानी यांची पूजा करणे, पावित्र्य, सरळपणा, ब्रह्मचर्य आणि अहिंसा, हे शारीरिक तप म्हटले जाते. ॥ १७-१४ ॥


अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्‌ ।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते ॥ १७-१५ ॥

Hindi - जो उद्वेग न करने वाला, प्रिय और हितकारक एवं यथार्थ भाषण है (मन और इन्द्रियों द्वारा जैसा अनुभव किया हो, ठीक वैसा ही कहने का नाम 'यथार्थ भाषण' है।) तथा जो वेद-शास्त्रों के पठन का एवं परमेश्वर के नाम-जप का अभ्यास है- वही वाणी-सम्बन्धी तप कहा जाता है ৷৷17.15॥
Marathi - जे दुसऱ्याला न बोचणारे, प्रिय, हितकारक आणि यथार्थ भाषण असते ते, तसेच वेदशास्त्रांचे पठण व परमेश्वराच्या नामजपाचा अभ्यास, हेच वाणीचे तप म्हटले जाते. ॥ १७-१५ ॥


मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः ।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ॥ १७-१६ ॥

Hindi - मन की प्रसन्नता, शान्तभाव, भगवच्चिन्तन करने का स्वभाव, मन का निग्रह और अन्तःकरण के भावों की भलीभाँति पवित्रता, इस प्रकार यह मन सम्बन्धी तप कहा जाता है ৷৷17.16॥
Marathi - मनाची प्रसन्नता, शांत भाव, भगवच्चिंतन करण्याचा स्वभाव, मनाचा निग्रह आणि अंतःकरणातील भावांची पूर्ण पवित्रता, हे मनाचे तप म्हटले जाते. ॥ १७-१६ ॥


श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः ।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते ॥ १७-१७ ॥

Hindi - फल को न चाहने वाले योगी पुरुषों द्वारा परम श्रद्धा से किए हुए उस पूर्वोक्त तीन प्रकार के तप को सात्त्विक कहते हैं ৷৷17.17॥
Marathi - फळाची इच्छा न करणाऱ्या योगी पुरुषांकडून अत्यंत श्रद्धेने केलेल्या वर सांगितलेल्या तिन्ही प्रकारच्या तपाला सात्त्विक तप म्हणतात. ॥ १७-१७ ॥


सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्‌ ।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्‌ ॥ १७-१८ ॥

Hindi - जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिए तथा अन्य किसी स्वार्थ के लिए भी स्वभाव से या पाखण्ड से किया जाता है, वह अनिश्चित ('अनिश्चित फलवाला' उसको कहते हैं कि जिसका फल होने न होने में शंका हो।) एवं क्षणिक फलवाला तप यहाँ राजस कहा गया है ৷৷17.18॥
Marathi - जे तप सत्कार, मान व पूजा होण्यासाठी तसेच दुसऱ्या काही स्वार्थासाठीही स्वभावाप्रमाणे किंवा पाखंडीपणाने केले जाते, ते अनिश्चित तसेच क्षणिक फळ देणारे तप येथे राजस असे म्हटले आहे. ॥ १७-१८ ॥


मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः ।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्‌ ॥ १७-१९ ॥

Hindi - जो तप मूढ़तापूर्वक हठ से, मन, वाणी और शरीर की पीड़ा के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिए किया जाता है- वह तप तामस कहा गया है ৷৷17.19॥
Marathi - जे तप मूर्खतापूर्वक हट्टाने, मन, वाणी आणि शरीर यांना कष्ट देऊन किंवा दुसऱ्यांचे अनिष्ट करण्यासाठी केले जाते, ते तप तामस म्हटले गेले आहे. ॥ १७-१९ ॥


दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे ।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्‌ ॥ १७-२० ॥

Hindi - दान देना ही कर्तव्य है- ऐसे भाव से जो दान देश तथा काल (जिस देश-काल में जिस वस्तु का अभाव हो, वही देश-काल, उस वस्तु द्वारा प्राणियों की सेवा करने के लिए योग्य समझा जाता है।) और पात्र के (भूखे, अनाथ, दुःखी, रोगी और असमर्थ तथा भिक्षुक आदि तो अन्न, वस्त्र और ओषधि एवं जिस वस्तु का जिसके पास अभाव हो, उस वस्तु द्वारा सेवा करने के लिए योग्य पात्र समझे जाते हैं और श्रेष्ठ आचरणों वाले विद्वान्‌ ब्राह्मणजन धनादि सब प्रकार के पदार्थों द्वारा सेवा करने के लिए योग्य पात्र समझे जाते हैं।) प्राप्त होने पर उपकार न करने वाले के प्रति दिया जाता है, वह दान सात्त्विक कहा गया है ৷৷17.20॥
Marathi - दान देणे कर्तव्य आहे, या भावनेने जे दान, देश, काल आणि पात्र मिळाली असता उपकार न करणाऱ्याला दिले जाते, ते दान सात्त्विक म्हटले गेले आहे. ॥ १७-२० ॥


यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः ।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्‌ ॥ १७-२१ ॥

Hindi - किन्तु जो दान क्लेशपूर्वक (जैसे प्रायः वर्तमान समय के चन्दे-चिट्ठे आदि में धन दिया जाता है।) तथा प्रत्युपकार के प्रयोजन से अथवा फल को दृष्टि में (अर्थात्‌ मान बड़ाई, प्रतिष्ठा और स्वर्गादि की प्राप्ति के लिए अथवा रोगादि की निवृत्ति के लिए।) रखकर फिर दिया जाता है, वह दान राजस कहा गया है ৷৷17.21॥
Marathi - परंतु जे दान क्लेशपूर्वक, प्रत्युपकाराच्या हेतूने अथवा फळ नजरेसमोर ठेवून दिले जाते, ते दान राजस म्हटले आहे. ॥ १७-२१ ॥


अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते ।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्‌ ॥ १७-२२ ॥

Hindi - जो दान बिना सत्कार के अथवा तिरस्कारपूर्वक अयोग्य देश-काल में और कुपात्र के प्रति दिया जाता है, वह दान तामस कहा गया है ৷৷17.22॥
Marathi - जे दान सत्काराशिवाय किंवा तिरस्कारपूर्वक अयोग्य ठिकाणी, अयोग्य काळी आणि कुपात्री दिले जाते, ते दान तामस म्हटले गेले आहे. ॥ १७-२२ ॥


ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः ।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा ॥ १७-२३ ॥

Hindi - ॐ, तत्‌, सत्‌-ऐसे यह तीन प्रकार का सच्चिदानन्दघन ब्रह्म का नाम कहा है, उसी से सृष्टि के आदिकाल में ब्राह्मण और वेद तथा यज्ञादि रचे गए ৷৷17.23॥
Marathi - ॐ तत्‌ सत्‌ अशी तीन प्रकारची सच्चिदानंदघन ब्रह्माची नावे सांगितली आहेत. त्यांपासून सृष्टीच्या आरंभी ब्राह्मण, वेद आणि यज्ञादी रचले गेले आहेत. ॥ १७-२३ ॥


तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः ।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम्‌ ॥ १७-२४ ॥

Hindi - इसलिए वेद-मन्त्रों का उच्चारण करने वाले श्रेष्ठ पुरुषों की शास्त्र विधि से नियत यज्ञ, दान और तपरूप क्रियाएँ सदा 'ॐ' इस परमात्मा के नाम को उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं ৷৷17.24॥
Marathi - म्हणून वेदमंत्रांचा उच्चार करणाऱ्या श्रेष्ठ पुरुषांच्या शास्त्राने सांगितलेल्या यज्ञ, दान व तप रूप क्रियांचा नेहमी ॐ या परमात्म्याच्या नावाचा उच्चार करूनच आरंभ होत असतो. ॥ १७-२४ ॥


तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपःक्रियाः ।
दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः ॥ १७-२५ ॥

Hindi - तत्‌ अर्थात्‌ 'तत्‌' नाम से कहे जाने वाले परमात्मा का ही यह सब है- इस भाव से फल को न चाहकर नाना प्रकार के यज्ञ, तपरूप क्रियाएँ तथा दानरूप क्रियाएँ कल्याण की इच्छा वाले पुरुषों द्वारा की जाती हैं ৷৷17.25॥
अर्थातत्‌ या नावाने संबोधिल्या जाणाऱ्या परमात्म्याचेच हे सर्व आहे, या भावनेने फळाची इच्छा न करता नाना प्रकारच्या यज्ञ, तप व दान रूप क्रिया कल्याणाची इच्छा करणाऱ्या पुरुषांकडून केल्या जातात. ॥ १७-२५ ॥


सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते ।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ॥ १७-२६ ॥

Hindi - 'सत्‌'- इस प्रकार यह परमात्मा का नाम सत्यभाव में और श्रेष्ठभाव में प्रयोग किया जाता है तथा हे पार्थ! उत्तम कर्म में भी 'सत्‌' शब्द का प्रयोग किया जाता है ৷৷17.26॥
Marathi - सत्‌ या परमात्म्याच्या नावाचा सत्य भावात आणि श्रेष्ठ भावात प्रयोग केला जातो. तसेच हे पार्था (अर्थात पृथापुत्र अर्जुना), उत्तम कर्मातही सत्‌ शब्द योजला जातो. ॥ १७-२६ ॥


यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते ।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते ॥ १७-२७ ॥

Hindi - तथा यज्ञ, तप और दान में जो स्थिति है, वह भी 'सत्‌' इस प्रकार कही जाती है और उस परमात्मा के लिए किया हुआ कर्म निश्चयपूर्वक सत्‌-ऐसे कहा जाता है ৷৷17.27॥
अर्थातसेच यज्ञ, तप आणि दान यांमध्ये जी स्थिती अर्थात आस्तिक बुद्धी असते, तिलाही सत्‌ असे म्हणतात आणि त्या परमात्म्यासाठी केलेले कर्म निश्चयाने सत्‌ असे म्हटले जाते. ॥ १७-२७ ॥


अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्‌ ।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ॥ १७-२८ ॥

Hindi - हे अर्जुन! बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन, दिया हुआ दान एवं तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ शुभ कर्म है- वह समस्त 'असत्‌'- इस प्रकार कहा जाता है, इसलिए वह न तो इस लोक में लाभदायक है और न मरने के बाद ही ৷৷17.28॥
Marathi - हे पार्था (अर्थात पृथापुत्र अर्जुना), श्रद्धेशिवाय केलेले हवन, दिलेले दान, केलेले तप आणि जे काही केलेले शुभ कार्य असेल, ते सर्व असत्‌ म्हटले जाते. त्यामुळे ते ना इहलोकात फलदायी होत ना परलोकात. ॥ १७-२८ ॥


ॐ तत्सदिति श्रीमद्‌भगवद्‌गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे
श्रद्धात्रयविभागयोगो नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥