श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय ३ : कर्मयोग

Shrimad Bhagavad Gita - Adhyay 3 - Sanskrit, Hindi, Marathi | अर्जुन उवाच, ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन । तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥ ३-१ ॥

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श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय ३ : कर्मयोग

भारतीय संस्कृति में गीता का स्थान इतना महत्वपूर्ण है कि गीता को 'योगोपनिषद' या 'गीतोपनिषद' कहा जाता है और इसे उपनिषद का दर्जा दिया गया है। आज हम श्रीमद्भगवद्गीता को हिन्दी और मराठी में जानने कि कोशिश करे|

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अथ तृतीयोऽध्यायः ~ कर्मयोग

अर्जुन उवाच
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन ।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥ ३-१ ॥

Hindi - अर्जुन बोले- हे जनार्दन! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर हे केशव! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं?॥1॥
Marathi - अर्जुन म्हणाला, हे जनार्दन श्रीकृष्णा, जर तुम्हाला कर्माहून ज्ञान श्रेष्ठ वाटते, तर मग हे केशवा (श्रीकृष्णा), मला भयंकर कर्म करण्यास का प्रवृत्त करीत आहात? ॥ ३-१ ॥


व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्‌ ॥ ३-२ ॥

Hindi - आप मिले हुए-से वचनों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं। इसलिए उस एक बात को निश्चित करके कहिए जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ॥2॥
Marathi - तुम्ही मिश्रितशा भाषणाने माझ्या बुद्धीला जणू मोहित करीत आहात. म्हणून अशी एकच गोष्ट निश्चित करून मला सांगा की ज्यामुळे माझे कल्याण होईल. ॥ ३-२ ॥


श्रीभगवानुवाच
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्‌ ॥ ३-३ ॥

Hindi - श्रीभगवान बोले- हे निष्पाप! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा (साधन की परिपक्व अवस्था अर्थात पराकाष्ठा का नाम 'निष्ठा' है।) मेरे द्वारा पहले कही गई है। उनमें से सांख्य योगियों की निष्ठा तो ज्ञान योग से (माया से उत्पन्न हुए सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरतते हैं, ऐसे समझकर तथा मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाली सम्पूर्ण क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान से रहित होकर सर्वव्यापी सच्चिदानंदघन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहने का नाम 'ज्ञान योग' है, इसी को 'संन्यास', 'सांख्ययोग' आदि नामों से कहा गया है।) और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से (फल और आसक्ति को त्यागकर भगवदाज्ञानुसार केवल भगवदर्थ समत्व बुद्धि से कर्म करने का नाम 'निष्काम कर्मयोग' है, इसी को 'समत्वयोग', 'बुद्धियोग', 'कर्मयोग', 'तदर्थकर्म', 'मदर्थकर्म', 'मत्कर्म' आदि नामों से कहा गया है।) होती है॥3॥
Marathi - भगवान श्रीकृष्ण म्हणाले, हे निष्पापा, या जगात दोन प्रकारची निष्ठा माझ्याकडून पूर्वी सांगितली गेली आहे. त्यातील सांख्ययोग्यांची निष्ठा ज्ञानयोगाने आणि योग्यांची निष्ठा कर्मयोगाने होते. ॥ ३-३ ॥


न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥ ३-४ ॥

Hindi - मनुष्य न तो कर्मों का आरंभ किए बिना निष्कर्मता (जिस अवस्था को प्राप्त हुए पुरुष के कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात फल उत्पन्न नहीं कर सकते, उस अवस्था का नाम 'निष्कर्मता' है।) को यानी योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानी सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है॥4॥
Marathi - मनुष्य कर्मे केल्याशिवाय निष्कर्मतेला म्हणजेच योगनिष्ठेला प्राप्त होत नाही आणि फक्त कर्मांचा त्याग केल्याने सिद्धीला म्हणजेच सांख्यनिष्ठेला प्राप्त होत नाही. ॥ ३-४ ॥


न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्‌ ।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिर्जैगुणैः ॥ ३-५ ॥

Hindi - निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है॥5॥
Marathi - निःसंशयपणे कोणीही मनुष्य कोणत्याही वेळी क्षणभरसुद्धा काम न करता राहात नाही. कारण सर्व मनुष्यसमुदाय प्रकृतीपासून उत्पन्न झालेल्या गुणांमुळे पराधीन असल्यामुळे कर्म करायला भाग पाडला जातो. ॥ ३-५ ॥


कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्‌ ।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥ ३-६ ॥

Hindi - जो मूढ़ बुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात दम्भी कहा जाता है॥6॥
Marathi - जो मूर्ख मनुष्य सर्व इंद्रिये बळेच वरवर आवरून मनाने त्या इंद्रियांच्या विषयांचे चिंतन करीत राहतो, तो मिथ्याचारी म्हणजे दांभिक म्हटला जातो. ॥ ३-६ ॥


यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥ ३-७ ॥

Hindi - किन्तु हे अर्जुन! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है॥7॥
Marathi - परंतु हे अर्जुना, जो मनुष्य मनाने इंद्रियांना ताब्यात ठेवून आसक्त न होता सर्व इंद्रियांच्या द्वारे कर्मयोगाचे आचरण करतो, तो श्रेष्ठ होय. ॥ ३-७ ॥


नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः ।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः ॥ ३-८ ॥

Hindi - तू शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म कर क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा॥8॥
Marathi - तू शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म कर. कारण कर्म न करण्यापेक्षा कर्म करणे श्रेष्ठ आहे. तसेच कर्म न करण्याने तुझे शरीरव्यवहारही चालणार नाहीत. ॥ ३-८ ॥


यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः ।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर ॥ ३-९ ॥

Hindi - यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मुनष्य समुदाय कर्मों से बँधता है। इसलिए हे अर्जुन! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभाँति कर्तव्य कर्म कर॥9॥
Marathi - यज्ञानिमित्त केल्या जाणाऱ्या कर्मांशिवाय दुसऱ्या कर्मात गुंतलेला हा मनुष्यसमुदाय कर्मांनी बांधला जातो. म्हणून हे कुंतीपुत्र अर्जुना, तू आसक्ती सोडून यज्ञासाठी उत्तम प्रकारे कर्तव्यकर्म कर. ॥ ३-९ ॥


सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः ।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्‌ ॥ ३-१० ॥

Hindi - प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो॥10॥
Marathi - प्रजापती ब्रह्मदेवाने कल्पारंभी यज्ञासह प्रजा उत्पन्न करून त्यांना सांगितले की, तुम्ही या यज्ञाच्या द्वारे उत्कर्ष प्राप्त करून घ्या आणि हा यज्ञ तुमचे इच्छित मनोरथ पूर्ण करणारा होवो. ॥ ३-१० ॥


देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥ ३-११ ॥

Hindi - तुम लोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगों को उन्नत करें। इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे॥11॥
Marathi - तुम्ही या यज्ञाने देवतांची पुष्टी करा आणि त्या देवतांनी तुम्हाला पुष्ट करावे. अशा प्रकारे निःस्वार्थीपणाने एकमेकांची उन्नती करीत तुम्ही परम कल्याणाला प्राप्त व्हाल. ॥ ३-११ ॥


इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः ॥ ३-१२ ॥

Hindi - यज्ञ द्वारा बढ़ाए हुए देवता तुम लोगों को बिना माँगे ही इच्छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओं द्वारा दिए हुए भोगों को जो पुरुष उनको बिना दिए स्वयं भोगता है, वह चोर ही है॥12॥
Marathi - यज्ञाने पुष्ट झालेल्या देवता तुम्हाला न मागताही इच्छित भोग खात्रीने देत राहातील. अशा रीतीने त्या देवतांनी दिलेले भोग त्यांना अर्पण न करता जो स्वतःच उपभोगतो, तो चोरच आहे. ॥ ३-१२ ॥


यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः ।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्‌ ॥ ३-१३ ॥

Hindi - यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो पापी लोग अपना शरीर-पोषण करने के लिए ही अन्न पकाते हैं, वे तो पाप को ही खाते हैं॥13॥
Marathi - यज्ञ करून शिल्लक राहिलेले अन्न खाणारे श्रेष्ठ मनुष्य सर्व पापांपासून मुक्त होतात. पण जे पापी लोक केवळ स्वतःच्या शरीरपोषणासाठी अन्न शिजवितात, ते तर पापच खातात. ॥ ३-१३ ॥


अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः ।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥ ३-१४ ॥
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्‌ ।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्‌ ॥ ३-१५ ॥

Hindi - सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है, वृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होने वाला है। कर्मसमुदाय को तू वेद से उत्पन्न और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान। इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है॥14-15॥
Marathi - सर्व प्राणी अन्नापासून उत्पन्न होतात. अन्ननिर्मिती पावसापासून होते. पाऊस यज्ञामुळे पडतो. आणि यज्ञ विहित कर्मांमुळे घडतो. कर्मसमुदाय वेदांपासून व वेद अविनाशी परमात्म्यापासून उत्पन्न झालेले आहेत, असे समज. यावरून हेच सिद्ध होते की, सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा नेहमीच यज्ञात प्रतिष्ठित असतो. ॥ ३-१४, ३-१५ ॥


एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥ ३-१६ ॥

Hindi - हे पार्थ! जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार परम्परा से प्रचलित सृष्टिचक्र के अनुकूल नहीं बरतता अर्थात अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, वह इन्द्रियों द्वारा भोगों में रमण करने वाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है॥16॥
Marathi - हे पार्था, जो मनुष्य या जगात अशा प्रकारे परंपरेने चालू असलेल्या सृष्टिचक्राला अनुसरून वागत नाही म्हणजेच आपल्या कर्तव्याचे पालन करीत नाही, तो इंद्रियांच्या द्वारे भोगांत रमणारा पापी आयुष्य असलेला मनुष्य व्यर्थच जगतो. ॥ ३-१६ ॥


यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥ ३-१७ ॥

Hindi - परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट हो, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है॥17॥
Marathi - परंतु जो मनुष्य आत्म्यामध्येच रमणारा आणि आत्म्यामध्येच तृप्त तसेच आत्म्यामध्येच संतुष्ट असतो, त्याच्यासाठी कोणतेही कर्तव्य उरत नाही. ॥ ३-१७ ॥


नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥ ३-१८ ॥

Hindi - उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थ का संबंध नहीं रहता॥18॥
Marathi - त्या महामनुष्याला या विश्वात कर्मे करण्याचे काही प्रयोजन असत नाही. तसेच कर्मे न करण्याचेही काही प्रयोजन असत नाही. तसेच सर्व प्राणिमात्रातही त्याचा जरादेखील स्वार्थाचा संबंध असत नाही. ॥ ३-१८ ॥


तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ॥ ३-१९ ॥

Hindi - इसलिए तू निरन्तर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्यकर्म को भलीभाँति करता रह क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है॥19॥
Marathi - म्हणून तू नेहमी आसक्त न होता कर्तव्य कर्म नीट करीत राहा. कारण आसक्ती सोडून कर्म करणारा मनुष्य परमात्म्याला जाऊन मिळतो. ॥ ३-१९ ॥


कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ।
लोकसङ्ग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ॥ ३-२० ॥

Hindi - जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्ति रहित कर्मद्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे, इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने के ही योग्य है अर्थात तुझे कर्म करना ही उचित है॥20॥
Marathi - जनकादी ज्ञानी लोकही आसक्तिरहित कर्मांनीच परमसिद्धीला प्राप्त झाले होते. म्हणून तसेच लोकसंग्रहाकडे दृष्टी देऊनदेखील तू कर्म करणेच योग्य आहे. ॥ ३-२० ॥


यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥ ३-२१ ॥

Hindi - श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य-समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है (यहाँ क्रिया में एकवचन है, परन्तु 'लोक' शब्द समुदायवाचक होने से भाषा में बहुवचन की क्रिया लिखी गई है।)॥21॥
Marathi - श्रेष्ठ मनुष्य जे जे आचरण करतो, त्या त्या प्रमाणेच इतर लोकही आचरण करतात; तो जे काही प्रमाण म्हणून सांगतो, त्याप्रमाणेच सर्व मनुष्यसमुदाय वागू लागतो. ॥ ३-२१ ॥


न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन ।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥ ३-२२ ॥

Hindi - हे अर्जुन! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ॥22॥
Marathi - हे अर्जुन! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ॥22॥


यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥ ३-२३ ॥

Hindi - क्योंकि हे पार्थ! यदि कदाचित्‌ मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाए क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं॥23॥
Marathi - कारण हे पार्था (अर्थात पृथापुत्र अर्जुना), जर का मी सावध राहून कर्मे केली नाहीत, तर मोठे नुकसान होईल, कारण मनुष्य सर्व प्रकारे माझ्याच मार्गाचे अनुकरण करतात. ॥ ३-२३ ॥


उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्‌ ।
सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥ ३-२४ ॥

Hindi - इसलिए यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जाएँ और मैं संकरता का करने वाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ॥24॥
Marathi - म्हणून जर मी कर्मे केली नाहीत, तर ही सर्व माणसे नष्ट-भ्रष्ट होतील आणि मी संकरतेचे कारण होईन, तसेच या सर्व प्रजेचा घात करणारा होईन. ॥ ३-२४ ॥


सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसङ्ग्रहम्‌ ॥ ३-२५ ॥

Hindi - हे भारत! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्तिरहित विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे॥25॥
Marathi - हे भारता(भरतवंशी अर्जुना), कर्मांत आसक्त असणारे अज्ञानी लोक ज्या रीतीने कर्मे करतात, त्याच रीतीने आसक्ती नसलेल्या विद्वानानेही लोकसंग्रह करण्याच्या इच्छेने कर्मे करावीत. ॥ ३-२५ ॥


न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्‌ ।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्‌ ॥ ३-२६ ॥

Hindi - परमात्मा के स्वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह शास्त्रविहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे, किन्तु स्वयं शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभाँति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवाए॥26॥
Marathi - परमात्मस्वरूपात स्थिर असलेल्या ज्ञानी मनुष्याने शास्त्रविहित कर्मांत आसक्ती असलेल्या अज्ञानी लोकांच्या बुद्धीत भ्रम म्हणजेच कर्मांविषयी अश्रद्धा निर्माण करू नये. उलट स्वतः शास्त्रविहित सर्व कर्मे उत्तमप्रकारे करीत त्यांच्याकडूनही तशीच करून घ्यावीत. ॥ ३-२६ ॥


प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥ ३-२७ ॥

Hindi - वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं, तो भी जिसका अन्तःकरण अहंकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मानता है॥27॥
Marathi - वास्तविक सर्व कर्मे सर्व प्रकारे प्रकृतीच्या गुणांमार्फत केली जातात. तरीही ज्याचे अंतःकरण अहंकारामुळे मोहित झाले आहे, असा अज्ञानी मनुष्य मी कर्ता आहे, असे मानतो. ॥ ३-२७ ॥


तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥ ३-२८ ॥

Hindi - परन्तु हे महाबाहो! गुण विभाग और कर्म विभाग (त्रिगुणात्मक माया के कार्यरूप पाँच महाभूत और मन, बुद्धि, अहंकार तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और शब्दादि पाँच विषय- इन सबके समुदाय का नाम 'गुण विभाग' है और इनकी परस्पर की चेष्टाओं का नाम 'कर्म विभाग' है।) के तत्व (उपर्युक्त 'गुण विभाग' और 'कर्म विभाग' से आत्मा को पृथक अर्थात्‌ निर्लेप जानना ही इनका तत्व जानना है।) को जानने वाला ज्ञान योगी सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता। ॥28॥
Marathi - पण हे महाबाहो (अर्जुना), गुणविभाग आणि कर्मविभाग यांचे तत्त्व जाणणारा ज्ञानयोगी सर्व गुणच गुणांत वावरत असतात, हे लक्षात घेऊन त्यांमध्ये आसक्त होत नाही. ॥ ३-२८ ॥


प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु ।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्‌ ॥ ३-२९ ॥

Hindi - प्रकृति के गुणों से अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझने वाले मन्दबुद्धि अज्ञानियों को पूर्णतया जानने वाला ज्ञानी विचलित न करे॥29॥
Marathi - प्रकृतीच्या गुणांनी अत्यंत मोहित झालेली माणसे गुणांत आणि कर्मांत आसक्त होतात. त्या चांगल्या रीतीने न जाणणाऱ्या मंदबुद्धीच्या अज्ञानी मनुष्यांचा पूर्ण ज्ञान असणाऱ्या ज्ञानी मनुष्याने बुद्धिभेद करू नये. ॥ ३-२९ ॥


मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा ।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥ ३-३० ॥

Hindi - मुझ अन्तर्यामी परमात्मा में लगे हुए चित्त द्वारा सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके आशारहित, ममतारहित और सन्तापरहित होकर युद्ध कर॥30॥
Marathi - अंतर्यामी मज परमात्म्यामध्ये गुंतलेल्या चित्ताने सर्व कर्मे मला समर्पण करून आशा, ममता व संताप रहित होऊन तू युद्ध कर. ॥ ३-३० ॥


ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः ।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ॥ ३-३१ ॥

Hindi - जो कोई मनुष्य दोषदृष्टि से रहित और श्रद्धायुक्त होकर मेरे इस मत का सदा अनुसरण करते हैं, वे भी सम्पूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं॥31॥
Marathi - जे कोणी मानव दोषदृष्टी टाकून श्रद्धायुक्त अंतःकरणाने माझ्या या मताचे नेहमी अनुसरण करतात, तेही सर्व कर्मांपासून मुक्त होतात. ॥ ३-३१ ॥


ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्‌ ।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ॥ ३-३२ ॥

Hindi - परन्तु जो मनुष्य मुझमें दोषारोपण करते हुए मेरे इस मत के अनुसार नहीं चलते हैं, उन मूर्खों को तू सम्पूर्ण ज्ञानों में मोहित और नष्ट हुए ही समझ॥32॥
Marathi - परंतु जे मानव माझ्यावर दोषारोप करून माझ्या या मतानुसार वागत नाहीत, त्या मूर्खांना तू सर्व ज्ञानांना मुकलेले आणि नष्ट झालेलेच समज. ॥ ३-३२ ॥


सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥ ३-३३ ॥

Hindi - सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात अपने स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं। ज्ञानवान्‌ भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है। फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा॥33॥
Marathi - सर्व प्राणी प्रकृतीच्या वळणावर जातात, म्हणजेच आपल्या स्वभावाच्या अधीन होऊन कर्मे करतात. ज्ञानीसुद्धा आपल्या स्वभावानुसारच व्यवहार करतो. मग या विषयांत कोणाचाही हट्टीपणा काय करील? ॥ ३-३३ ॥


इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥ ३-३४ ॥

Hindi - इन्द्रिय-इन्द्रिय के अर्थ में अर्थात प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं। मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिए क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान्‌ शत्रु हैं॥34॥
Marathi - प्रत्येक इंद्रियाचे इंद्रियाच्या विषयात राग व द्वेष लपलेले असतात. माणसाने त्या दोहोंच्या आहारी जाता कामा नये. कारण ते दोन्हीही त्याच्या कल्याणमार्गात विघ्न करणारे मोठे शत्रू आहेत. ॥ ३-३४ ॥


श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌ ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥ ३-३५ ॥

Hindi - अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है॥35॥
Marathi - चांगल्याप्रकारे आचरणात आणलेल्या दुसऱ्याच्या धर्माहून गुणरहित असला तरी आपला धर्म अतिशय उत्तम आहे. आपल्या धर्मात तर मरणेही कल्याणकारक आहे. पण दुसऱ्याचा धर्म भय देणारा आहे. ॥ ३-३५ ॥


अर्जुन उवाच
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥ ३-३६ ॥

Hindi - अर्जुन बोले- हे कृष्ण! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात्‌ लगाए हुए की भाँति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है॥36॥
Marathi - अर्जुन म्हणाला, हे वार्ष्णेया(श्रीकृष्णा), तर मग हा मनुष्य स्वतःची इच्छा नसतानाही जबरदस्तीने करावयास लावल्याप्रमाणे कोणाच्या प्रेरणेने पापाचे आचरण करतो? ॥ ३-३६ ॥


श्रीभगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्‌ ॥ ३-३७ ॥

Hindi - श्री भगवान बोले- रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है। यह बहुत खाने वाला अर्थात भोगों से कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है। इसको ही तू इस विषय में वैरी जान॥37॥
Marathi - भगवान श्रीकृष्ण म्हणाले, रजोगुणापासून उत्पन्न झालेला हा कामच क्रोध आहे. हा खूप खादाड अर्थात भोगांनी कधीही तृप्त न होणारा व मोठा पापी आहे. हाच या विषयातील वैरी आहे, असे तू जाण. ॥ ३-३७ ॥


धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च ।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्‌ ॥ ३-३८ ॥

Hindi - जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और मैल से दर्पण ढँका जाता है तथा जिस प्रकार जेर से गर्भ ढँका रहता है, वैसे ही उस काम द्वारा यह ज्ञान ढँका रहता है॥38॥
Marathi - ज्याप्रमाणे धुराने अग्नी, धुळीने आरसा आणि वारेने गर्भ झाकला जातो, त्याचप्रमाणे त्या कामामुळे हे ज्ञान आच्छादित राहाते. ॥ ३-३८ ॥


आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥ ३-३९ ॥

Hindi - और हे अर्जुन! इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होने वाले काम रूप ज्ञानियों के नित्य वैरी द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढँका हुआ है॥39॥
Marathi - आणि हे कुंतीपुत्र अर्जुना, कधीही तृप्त न होणारा हा कामरूपी अग्नी ज्ञानी माणसाचा कायमचा शत्रू आहे. त्याने मनुष्यांचे ज्ञान झाकले आहे. ॥ ३-३९ ॥


इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते ।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्‌ ॥ ३-४० ॥

Hindi - इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि- ये सब इसके वासस्थान कहे जाते हैं। यह काम इन मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है। ॥40॥
Marathi - इंद्रिये, मन आणि बुद्धी ही या कामाचे निवासस्थान म्हटली जातात. हा काम या मन, बुद्धी व इंद्रियांच्या द्वारा ज्ञानाला आच्छादित करून जीवात्म्याला मोहित करतो. ॥ ३-४० ॥


तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्‌ ॥ ३-४१ ॥

Hindi - इसलिए हे अर्जुन! तू पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल॥41॥
Marathi - म्हणून हे अर्जुना, तू प्रथम इंद्रियांवर ताबा ठेवून, या ज्ञान आणि विज्ञान यांचा नाश करणाऱ्या, मोठ्या पापी कामाला अवश्य बळेच मारून टाक. ॥ ३-४१ ॥


इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥ ३-४२ ॥

Hindi - इन्द्रियों को स्थूल शरीर से पर यानी श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म कहते हैं। इन इन्द्रियों से पर मन है, मन से भी पर बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यन्त पर है वह आत्मा है॥42॥
Marathi - इंद्रियांना स्थूलशरीराहून पर म्हणजे श्रेष्ठ, बलवान आणि सूक्ष्म म्हटले जाते. या इंद्रियांहून मन पर आहे. मनाहून बुद्धी पर आहे. आणि जो बुद्धीहूनही अत्यंत पर आहे, तो आत्मा होय. ॥ ३-४२ ॥


एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्‌ ॥ ३-४३ ॥

Hindi - इस प्रकार बुद्धि से पर अर्थात सूक्ष्म, बलवान और अत्यन्त श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहो! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाल॥43॥
Marathi - अशा प्रकारे बुद्धीहून पर अर्थात सूक्ष्म, बलवान व अत्यंत श्रेष्ठ असा आत्मा आहे, हे जाणून आणि बुद्धीच्या द्वारा मनाला स्वाधीन करून, हे महाबाहो, तू या कामरूप अजिंक्य शत्रूला मारून टाक. ॥ ३-४३ ॥


ॐ तत्सदिति श्रीमद्‌भगवद्‌गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे
कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥