श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय १२ : भक्तियोग

Shrimad Bhagavad Gita - Adhyay 12- Sanskrit, Hindi, Marathi | अर्जुन उवाच, एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते । ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ॥ १२-१ ॥

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श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय १२ : भक्तियोग

भारतीय संस्कृति में गीता का स्थान इतना महत्वपूर्ण है कि गीता को 'योगोपनिषद' या 'गीतोपनिषद' कहा जाता है और इसे उपनिषद का दर्जा दिया गया है। आज हम श्रीमद्भगवद्गीता को हिन्दी और मराठी में जानने कि कोशिश करे|

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अथ द्वादशोऽध्यायः- भक्तियोग

अर्जुन उवाच
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते ।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ॥ १२-१ ॥

Hindi - अर्जुन बोले- जो अनन्य प्रेमी भक्तजन पूर्वोक्त प्रकार से निरन्तर आपके भजन-ध्यान में लगे रहकर आप सगुण रूप परमेश्वर को और दूसरे जो केवल अविनाशी सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म को ही अतिश्रेष्ठ भाव से भजते हैं- उन दोनों प्रकार के उपासकों में अति उत्तम योगवेत्ता कौन हैं?॥1॥
Marathi - अर्जुन म्हणाला, जे अनन्यप्रेमी भक्तजन पूर्वी सांगितलेल्या आपल्या भजन, ध्यानात निरंतर मग्न राहून आपणा सगुणरूप परमेश्वराची आणि दुसरे जे केवळ अविनाशी सच्चिदानंदघन निराकार ब्रह्माचीच अतिश्रेष्ठ भावाने उपासना करतात, त्या दोन्ही प्रकारच्या भक्तांमध्ये अतिशय उत्तम योगवेत्ते कोण होत? ॥ १२-१ ॥


श्रीभगवानुवाच
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धा परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥ १२-२ ॥

Hindi - श्री भगवान बोले- मुझमें मन को एकाग्र करके निरंतर मेरे भजन-ध्यान में लगे हुए (अर्थात गीता अध्याय 11 श्लोक 55 में लिखे हुए प्रकार से निरन्तर मेरे में लगे हुए) जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त होकर मुझ सगुणरूप परमेश्वर को भजते हैं, वे मुझको योगियों में अति उत्तम योगी मान्य हैं॥2॥
Marathi - भगवान श्रीकृष्ण म्हणाले, माझ्या ठिकाणी मन एकाग्र करून निरंतर माझ्या भजन, ध्यानात रत झालेले जे भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धेने युक्त होऊन मज सगुणरूप परमेश्वराला भजतात, ते मला योग्यांमधील अतिउत्तम योगी वाटतात. ॥ १२-२ ॥


ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते ।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्‌ ॥ १२-३ ॥
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः ।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥ १२-४ ॥

Hindi - परन्तु जो पुरुष इन्द्रियों के समुदाय को भली प्रकार वश में करके मन-बुद्धि से परे, सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी, सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को निरन्तर एकीभाव से ध्यान करते हुए भजते हैं, वे सम्पूर्ण भूतों के हित में रत और सबमें समान भाववाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं॥3-4॥
Marathi - परंतु जे पुरुष इंद्रियसमूहाला चांगल्या प्रकारे ताब्यात ठेवून मन, बुद्धीच्या पलीकडे असणाऱ्या, सर्वव्यापी, अवर्णनीय स्वरूप आणि नेहमी एकरूप असणाऱ्या नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी, सच्चिदानंदघन ब्रह्माची निरंतर ऐक्यभावनेने ध्यान करीत उपासना करतात, ते सर्व भूतमात्रांच्या कल्याणात तत्पर आणि सर्वांच्या ठिकाणी समान भाव ठेवणारे योगी मलाच येऊन मिळतात. ॥ १२-३, १२-४ ॥


क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्‌ ॥
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ॥ १२-५ ॥

Hindi - उन सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म में आसक्त चित्तवाले पुरुषों के साधन में परिश्रम विशेष है क्योंकि देहाभिमानियों द्वारा अव्यक्तविषयक गति दुःखपूर्वक प्राप्त की जाती है॥5॥
Marathi - सच्चिदानंदघन निराकार ब्रह्मांत चित्त गुंतलेल्या त्या पुरुषांच्या साधनांत कष्ट जास्त आहेत. कारण देहाचा अभिमान असणाऱ्यांकडून अव्यक्त ब्रह्माची प्राप्ती कष्टानेच होत असते. ॥ १२-५ ॥


ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः ।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥ १२-६ ॥

Hindi - परन्तु जो मेरे परायण रहने वाले भक्तजन सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके मुझ सगुणरूप परमेश्वर को ही अनन्य भक्तियोग से निरन्तर चिन्तन करते हुए भजते हैं। (इस श्लोक का विशेष भाव जानने के लिए गीता अध्याय 11 श्लोक 55 देखना चाहिए)॥6॥
Marathi - परंतु जे मत्परायण भक्तजन सर्व कर्मे माझ्या ठिकाणी अर्पण करून मज सगुणरूप परमेश्वराचीच अनन्य भक्तियोगाने निरंतर चिंतन करीत उपासना करतात ॥ १२-६ ॥


तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्‌ ।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्‌ ॥ १२-७ ॥

Hindi - हे अर्जुन! उन मुझमें चित्त लगाने वाले प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्यु रूप संसार-समुद्र से उद्धार करने वाला होता हूँ॥7॥
Marathi - हे पार्था (अर्थात पृथापुत्र अर्जुना), त्या माझ्यात चित्त गुंतवलेल्या प्रेमी भक्तांचा मी तत्काळ मृत्युरूप संसारसागरातून उद्धार करणारा होतो. ॥ १२-७ ॥


मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय ।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ॥ १२-८ ॥

Hindi - मुझमें मन को लगा और मुझमें ही बुद्धि को लगा, इसके उपरान्त तू मुझमें ही निवास करेगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है॥8॥
Marathi - माझ्यातच मन ठेव. माझ्या ठिकाणीच बुद्धी स्थापन कर. म्हणजे मग तू माझ्यातच राहशील, यात मुळीच संशय नाही. ॥ १२-८ ॥


अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्‌ ।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ॥ १२-९ ॥

Hindi - यदि तू मन को मुझमें अचल स्थापन करने के लिए समर्थ नहीं है, तो हे अर्जुन! अभ्यासरूप (भगवान के नाम और गुणों का श्रवण, कीर्तन, मनन तथा श्वास द्वारा जप और भगवत्प्राप्तिविषयक शास्त्रों का पठन-पाठन इत्यादि चेष्टाएँ भगवत्प्राप्ति के लिए बारंबार करने का नाम 'अभ्यास' है) योग द्वारा मुझको प्राप्त होने के लिए इच्छा कर॥9॥
Marathi - जर तू माझ्यात मन निश्चल ठेवायला समर्थ नसशील, तर हे धनंजया (अर्थात अर्जुना), अभ्यासरूप योगाने मला प्राप्त होण्याची इच्छा कर. ॥ १२-९ ॥


अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव ।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ॥ १२-१० ॥

Hindi - यदि तू उपर्युक्त अभ्यास में भी असमर्थ है, तो केवल मेरे लिए कर्म करने के ही परायण (स्वार्थ को त्यागकर तथा परमेश्वर को ही परम आश्रय और परम गति समझकर, निष्काम प्रेमभाव से सती-शिरोमणि, पतिव्रता स्त्री की भाँति मन, वाणी और शरीर द्वारा परमेश्वर के ही लिए यज्ञ, दान और तपादि सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों के करने का नाम 'भगवदर्थ कर्म करने के परायण होना' है) हो जा। इस प्रकार मेरे निमित्त कर्मों को करता हुआ भी मेरी प्राप्ति रूप सिद्धि को ही प्राप्त होगा॥10॥
Marathi - जर तू वर सांगितलेल्या अभ्यासालाही असमर्थ असशील, तर केवळ माझ्याकरता कर्म करायला परायण हो. अशा रीतीने माझ्यासाठी कर्मे केल्यानेही माझ्या प्राप्तीची सिद्धी तू मिळवशील. ॥ १२-१० ॥


अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः ।
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्‌ ॥ १२-११ ॥

Hindi - यदि मेरी प्राप्ति रूप योग के आश्रित होकर उपर्युक्त साधन को करने में भी तू असमर्थ है, तो मन-बुद्धि आदि पर विजय प्राप्त करने वाला होकर सब कर्मों के फल का त्याग (गीता अध्याय 9 श्लोक 27 में विस्तार देखना चाहिए) कर॥11॥
Marathi - जर माझ्या प्राप्तिरूप योगाचा आश्रय करून वर सांगितलेले साधन करायलाही तू असमर्थ असशील, तर मन बुद्धी इत्यादींवर विजय मिळविणारा होऊन सर्व कर्मांच्या फळांचा त्याग कर. ॥ १२-११ ॥


श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाञ्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते ।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्‌ ॥ १२-१२ ॥

Hindi - मर्म को न जानकर किए हुए अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से मुझ परमेश्वर के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से सब कर्मों के फल का त्याग (केवल भगवदर्थ कर्म करने वाले पुरुष का भगवान में प्रेम और श्रद्धा तथा भगवान का चिन्तन भी बना रहता है, इसलिए ध्यान से 'कर्मफल का त्याग' श्रेष्ठ कहा है) श्रेष्ठ है, क्योंकि त्याग से तत्काल ही परम शान्ति होती है॥12॥
Marathi - मर्म न जाणता केलेल्या अभ्यासापेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ आहे. ज्ञानापेक्षा मज परमेश्वराच्या स्वरूपाचे ध्यान श्रेष्ठ आहे आणि ध्यानापेक्षाही सर्व कर्मांच्या फळांचा त्याग श्रेष्ठ आहे. कारण त्यागाने ताबडतोब परम शांती मिळते. ॥ १२-१२ ॥


अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च ।
निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी ॥ १२-१३ ॥
सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः ।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥ १२-१४ ॥

Hindi - जो पुरुष सब भूतों में द्वेष भाव से रहित, स्वार्थ रहित सबका प्रेमी और हेतु रहित दयालु है तथा ममता से रहित, अहंकार से रहित, सुख-दुःखों की प्राप्ति में सम और क्षमावान है अर्थात अपराध करने वाले को भी अभय देने वाला है तथा जो योगी निरन्तर संतुष्ट है, मन-इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किए हुए है और मुझमें दृढ़ निश्चय वाला है- वह मुझमें अर्पण किए हुए मन-बुद्धिवाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है॥13-14॥
Marathi - जो कोणत्याही भूताचा द्वेष न करणारा, स्वार्थरहित, सर्वांवर प्रेम करणारा व अकारण दया करणारा, माझेपणा व मीपणा नसलेला, दुःखात व सुखात समभाव असलेला आणि क्षमावान म्हणजे अपराध करणाऱ्यालाही (त्याच्या पश्चातापानंतर) अभय देणारा असतो; तसेच जो योगी नेहमी संतुष्ट असतो, ज्याने शरीर, मन व इंद्रिये ताब्यात ठेवलेली असतात, ज्याची माझ्यावर दृढ श्रद्धा असते, तो मन व बुद्धी मलाच अर्पण केलेला माझा भक्त मला प्रिय आहे. ॥ १२-१३, १२-१४ ॥


यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः ।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः ॥ १२-१५ ॥

Hindi - जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष (दूसरे की उन्नति को देखकर संताप होने का नाम 'अमर्ष' है), भय और उद्वेगादि से रहित है वह भक्त मुझको प्रिय है॥15॥
Marathi - ज्याच्यापासून कोणत्याही जीवाला उद्वेग होत नाही तसेच ज्याला कोणत्याही जीवाचा उद्वेग होत नाही, जो हर्ष, मत्सर, भीती आणि उद्वेग इत्यादींपासून मुक्त असतो, तो भक्त मला प्रिय आहे. ॥ १२-१५ ॥


अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः ।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥ १२-१६ ॥

Hindi - जो पुरुष आकांक्षा से रहित, बाहर-भीतर से शुद्ध (गीता अध्याय 13 श्लोक 7 की टिप्पणी में इसका विस्तार देखना चाहिए) चतुर, पक्षपात से रहित और दुःखों से छूटा हुआ है- वह सब आरम्भों का त्यागी मेरा भक्त मुझको प्रिय है॥16॥
Marathi - ज्याला कशाची अपेक्षा नाही, जो अंतर्बाह्य शुद्ध, चतुर, तटस्थ आणि दुःखमुक्त आहे, असा कर्तृत्वाचा अभिमान न बाळगणारा माझा भक्त मला प्रिय आहे. ॥ १२-१६ ॥


यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति ।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ॥ १२-१७ ॥

Hindi - जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों का त्यागी है- वह भक्तियुक्त पुरुष मुझको प्रिय है॥17॥
Marathi - जो कधी हर्षयुक्त होत नाही, द्वेष करीत नाही, शोक करीत नाही, इच्छा करीत नाही, तसेच जो शुभ व अशुभ सर्व कर्मांचा त्याग करणारा आहे, तो भक्तियुक्त पुरुष मला प्रिय आहे. ॥ १२-१७ ॥


समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः ।
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः ॥ १२-१८ ॥

Hindi - जो शत्रु-मित्र में और मान-अपमान में सम है तथा सर्दी, गर्मी और सुख-दुःखादि द्वंद्वों में सम है और आसक्ति से रहित है॥18॥
Marathi - जो शत्रू-मित्र आणि मान-अपमान यांविषयी समभाव बाळगतो, तसेच थंडी-ऊन, सुख-दुःख इत्यादी द्वंद्वांत ज्याची वृत्ती सारखीच राहते, ज्याला आसक्ती नसते ॥ १२-१८ ॥


तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्‌ ।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ॥ १२-१९ ॥

Hindi - जो निंदा-स्तुति को समान समझने वाला, मननशील और जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता और आसक्ति से रहित है- वह स्थिरबुद्धि भक्तिमान पुरुष मुझको प्रिय है॥19॥
Marathi - ज्याला निंदा-स्तुती सारखीच वाटते, जो ईशस्वरूपाचे मनन करणारा असतो, जो जे काही मिळेल त्यानेच शरीरनिर्वाह होण्याने नेहमी समाधानी असतो, निवासस्थानाविषयी ज्याला ममता किंवा आसक्ती नसते, तो स्थिर बुद्धी असणारा भक्तिमान पुरुष मला प्रिय असतो. ॥ १२-१९ ॥


ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते ।
श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः ॥ १२-२० ॥

Hindi - परन्तु जो श्रद्धायुक्त (वेद, शास्त्र, महात्मा और गुरुजनों के तथा परमेश्वर के वचनों में प्रत्यक्ष के सदृश विश्वास का नाम 'श्रद्धा' है) पुरुष मेरे परायण होकर इस ऊपर कहे हुए धर्ममय अमृत को निष्काम प्रेमभाव से सेवन करते हैं, वे भक्त मुझको अतिशय प्रिय हैं॥20॥
Marathi - परंतु जे श्रद्धाळू पुरुष मत्परायण होऊन या वर सांगितलेल्या धर्ममय अमृताचे निष्काम प्रेमभावनेने सेवन करतात, ते भक्त मला अतिशय प्रिय आहेत. ॥ १२-२० ॥



ॐ तत्सदिति श्रीमद्‌भगवद्‌गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे
भक्तियोगो नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥